________________ 423 जैन साहित्य और इतिहासपर, विषद प्रकाश लादि के साथ घोर जिनेन्द्र भी शामिल है / परीक्षा युक्ति-शालाविरोधिवाक्त्व हेतुसे की गई है अर्थात् जिनके बनन युक्ति और शास्त्रसे पविरोधरूप पाये गये उन्हें ही भाप्तरूपमें स्वीकार विया गया है-शेषका पास होना बाधित ठहराया गया है / ग्रन्थकारमहोदय स्वामी समन्तभद्रकी इस परीक्षामें, जिसे उन्होंने अपने 'माप्त. मीमांसा' ( देवागम ) ग्रन्थमें निबद्ध किया है, स्याद्वादनायक श्रीवीरमिनेन्द्र, जो अनेकान्तवादि-प्राप्तोंका प्रतिनिधित्व करते हैं, पूर्णरूपसे समुत्तीर्ण रहे हैं और इसलिये स्वामीजीने उन्हें निर्दोष माप्त ( सर्वज्ञ ) पोषित करते हुए पोर उनके अभिमत अनेकान्तशासनको प्रमाणाबाधित बतलाते हुए लिखा है कि आपके शासनाऽमृतसे बाह्य जो सर्वथा एकान्तवादी है वे प्राप्त नहीं प्राप्ताभिमानी दग्ध हैं; क्योंकि उनके द्वारा प्रतिपादित इष्ट तत्त्व प्रत्यक्ष-प्रमाणसे बाधित है -- स त्वमेवाऽसि निर्दोपी युक्ति-शास्त्राऽविरोधिवाक् / अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धन न बाध्यते // 6 // त्वन्मताऽमृत-वाद्यानां सर्वथैकान्तवादिनाम / आमाऽभिमान-दग्धानां स्वेष्टं इप्टेन बाध्यते / / 7 / / -प्राप्तमीमांसा इस तरह वीरजिनेन्द्र के गले में प्राप्त-विषयक जयमाल डालकर प्रौर इन दोनों कारिकाओं में वगित अपने कथनका स्पष्टीकरण करनेके अनतर प्राचार्य म्वामी समन्तभद्र हम स्तोत्रद्वारा वीरजिनेन्द्रका स्तवन करने बैठे हैं, जिसकी सूचना इस ग्रन्थकी प्रथम कारिकामें प्रयुक्त हुए 'प्रद्य' शब्दके द्वारा की गई है। टीकाकार श्रीविद्यानन्दाचार्य ने भी 'पद्य' शब्दका अर्थ 'प्रयाऽस्मिन काले परीक्षावसानसमये दिया है / माथ ही, कारिकाके निम्न प्रस्तावनावाक्य-द्वारा यह भी मूचित किया है कि प्रस्तुत ग्रन्थ प्राप्तमीमामाके बाद रचा गया है "श्रीमत्समन्तभद्रस्वामिभिराममीमांसायामन्ययोगव्यवच्छेनाद् ज्यवस्थापितेन भगवता श्रीमताईतान्त्यतीर्थरपरमदेवेन मां परीक्ष्य किं चिकीषवो भवन्तः ? इति ते पृष्टा इव पाहुः।" . .