________________ - समन्तभद्रका युक्त्यनुशासन : 425 स्वामी समन्तभद्र एक बहुत बड़े परीक्षा अधानी प्राचार्य थे, वे यों ही किसीके धागे मस्तक टेकनेकाले अथवा किसीकी स्तुतिमें प्रवृत्त होनेवाले नहीं थे। इसीसे वीरजिनेन्द्र को महानता-विषयक जब ये बातें उनके सामने आई कि 'उनके पास देव पाते हैं, प्राकाशमें बिना किसी विमानादिकी सहायताके उनका गमन होता है और चॅवर-त्रादि प्रष्ट प्रातिहार्योंके रूपमें तया समवसरणादिके रूप में अन्य विभूतियोंका की उनके निमित्त प्रादुर्भाव होता है तो उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि ये बातें तो मायात्रियों में-इन्द्रजालियों में भी पाई जाती हैं, इनके कारगा पार हमारे महान-पूज्य अथवा ग्रान-पुरुा नहीं है / और जव गरीगदिके अन्तर्बाह्य महान उदयकी बात बतलाकर महानता जतलाई गई तो उसे भी अस्वीकार करते हुए उन्होंने कर दिया कि शरीराका यह महान् उदय रागादिके वशीभूत देवताग्री में भी पाया जाता है। अत: यह हेतु भी व्यभिचारी है. इसमे महानता (प्राप्तता) सिद्ध नहीं होती। इसी तरह तीर्थकर होने में महानताकी बात जब मामने लाई गई तो प्रापने साफ कह दिया कि 'तीर्थकर' तो दूसरे मुगतादिक भी कहलाते है और वे भी संगारसे पार उत्तरने अथवा निवनि प्राप्त करने के उपआयरूप प्रागमतीर्थ के प्रवर्तक माने जाते है तब वे सब भी पान-मर्वज ठहरते हैं, और यह वान बनती नहीं; क्योकि तीर्थङ्करों के प्रागमोमें परस्पर विरोध पाया जाता है। प्रन. उनमे कोई एक ही महान हो सकता है. जिसका नाम नीर्थ करन हेतु नहीं, कोई दूसरा ही हेतु होना चाहिए / एसो हालत में पाठकजन यह जानने के लिये ज़रूर उत्सुक होगे कि स्वामीजी ने इस स्तोत्र वीरांजनकी महानताका किस रूपमे सद्योतन किया है / वीर* देवागम-नभोवान-चामरादि-विभूतयः / मायाविध्वनि दृश्यन्ते नाजस्वमसि नो महान् // 1 // 1 अध्यात्म बहिरप्येष विग्रहादिमहोदयः / दिव्यः सत्यो दिवौकस्स्वप्यस्ति रागादिमत्सु स: / / 2 / / * तीर्थ कृत्समयानां च परस्पर-विरोधतः / सर्वेषामाप्तता नास्ति कश्चिदेव भवेद्गुरुः ॥३॥-प्राप्तमीमांसा .