________________ 278 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश इस उल्लेखसे भी 'देवागम' के एक स्वतंत्र तथा प्रधान ग्रंथ होनेका पता चलता है, और यह मालूम नहीं होता कि गन्धहस्तिमहाभाष्य जिस 'तत्त्वार्य' ग्रन्थका व्याख्यान है वह उमास्वातिका 'तत्त्वार्थसूत्र' है या कोई दूसरा तत्त्वार्थशास्त्र; और इसलिये, इस विषयमें जो कुछ कल्पना और विवेचना ऊपर की गई है उसे यथासंभव यहाँ भी समझ लेना चाहिये / रही ग्रन्थसंख्याकी बात, वह बेशक उसके प्रचलित परिमाणसे भिन्न है और कर्मप्राभूत टीकाके उस परिमाणस भी भिन्न है जिसका उल्लेख इन्द्रनन्दी तथा विबुध श्रीधरके 'श्रुतावतार' नामक ग्रन्थोंमें पाया जाता है। ऐसी हालतमें यह खोजनेकी जरूरत है कि कौनसी संख्या ठीक है। उपलब्ध जैनमाहित्यमें, किमी भी प्राचार्य के ग्रन्थ अथवा प्राचीन शिलालेख परसे प्रचलित संख्याका कोई समर्थन नहीं होता अर्थात्. ऐसा कोई उल्लेख नही मिलता जिससे गंधहस्ति महाभाप्यकी श्लोकसंख्या 84 हजार पाई जाती हो;-बल्कि ऐमा भी कोई उल्लेख देखने में नहीं माता जिससे यह मालूम होता हो कि समन्तभद्रने 84 हजार श्लोकसंख्यावाला कोई ग्रन्थ निर्माण किया है, जिसका सम्बन्ध गंधहस्ति महाभाप्यके साथ मिला लिया जाता; और इसलिये महाभाष्यकी प्रचलित संख्याका मूल मालूम न होनेसे उसपर सदेह किया जासकता है। श्रुतावतार में 'चूडामरिक नामके कनडी भाष्यकी संख्या 88 हजार दी है; परंतु करर्णाटक शब्दानुशासनमें भट्टाकलंकदेव उसकी संख्या 66 हजार लिखते है और यह संख्या स्वयं ग्रन्यको देखकर लिखी हुई मालूम होती है; क्योंकि उन्होंने ग्रन्थको 'उपलभ्यमान' बतलाया है। इससे श्रुतावतारमें समन्तभद्रके सिद्धान्तागम-भाष्यको जो संख्या 48 हजार दी है उसपर भी संदेहको अवसर मिल सकता है, खासकर ऐसी हालत में जब कि विबुध श्रीधरके 'श्रुतावतार में उसकी संख्या 68 हजार हो- प्रकोंके मागे अंकोंका प्रागे पीछ लिखा जाना कोई अम्वाभाविक नहीं है, वह कभीकभी जल्दी में हो जाया करता है। उदाहरणके लिये डा. सतीशचन्द्रकी 'हिस्टरी माफ इंडियन लाजिक'को लीजिये, उसमें उमास्वातिकी प्रायुका उल्लेख करते हुए 84 की जगह 48 वर्ष, इसी अंकोंके पागे पीछेके कारण, लिखे गये हैं। अन्यथा, राक्टर साहबने उमास्वातिका समय ईसवी सन् 1 मे 85 तक दिया है। यदि इसे न देते तो वहाँ प्रायुके विषयमें और भी ज्यादा प्रम होना संभवपा।