________________
२६६
जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश
के नामसे मुद्रित हुआ है, कोई दूसरा 'तत्त्वानुशासन' ग्रन्थ भी बना है, जिसका एक पद्य नियमसारकी पद्मप्रभ- मलधारिदेव - विरचित टीकामे, 'तथा चोक्त तत्त्वानुशासने' इस वाक्यके साथ, पाया जाता है और वह पद्य इस प्रकार हैउत्सज्ये कायकर्माणि भावं च भवकारणं । स्वात्मावस्थानमव्ययं कायोत्सर्गः स उच्यते ॥
यह पद्य 'माणिकचन्दग्रंथमाला' में प्रकाशित उक्त तत्वानुशासनमें नहीं है, और इसलिये यह किसी दूसरे हो 'तत्त्वानुशासन' का पद्य है, ऐसा कहने में कुछ भी संकोच नहीं होता । पद्यपरमे ग्रंथ भी कुछ कम महत्वका मालूम नहीं होता | बहुत संभव है कि जिस तत्त्वानुशासन'का उक्त पद्य है वह स्वामी समंतभद्रका ही बनाया हुआ हो ।
इसके सिवाय श्वेताम्बरसम्प्रदायके प्रधान वाचायं श्रीहरिभद्रसूरिने, अपने 'अनेकान्तजयपताका' ग्रन्थ में 'वादिमुख्य समन्तभद्र के नामसे नीचे लिखे दो श्लोक उद्धृत किये हैं, और ये श्लोक शान्याचार्यविरचित 'प्रमाणकलिका' तथा वादिदेव पूरि विरचित 'म्याद्वादरत्नाकर' में भी समन्तभद्र के नामसे उद्घृत पाये जाते हैं +
बोधात्मा चेच्छ्रन्द्रस्य न म्यादन्यत्र तच्छ्र ुतिः । यद्वोद्धारं परित्यज्य न बोधोऽन्यत्र गच्छति ॥ न च स्यात्प्रत्ययो लोके यः श्रोत्रा न प्रतीयते । शब्दाभेदेन सत्येवं सर्वः स्यात्परचिन्वत |
श्रर 'समयमार' की जयमेनाचार्यकृन 'नात्ययंवृति' में भी, ममन्तभद्र नाममे कुछ श्लोकों को उद्धृत करते हुए एक श्लोक निम्न प्रकार में दिया हैधर्मिणोऽनन्तरूपत्वं धर्माणां न कथंचन ।
अनेकान्तयनेकान्त इति जैनमतं ततः ॥
ये तीनों श्लोक समंतभद्रक उपलब्ध ग्रंथों ( नं ० १ मे ५ तक ) में नहीं पाये जाते और इस लिये यह स्पष्ट है कि ये समन्तभद्र के किमी दूसरे ही ग्रन्थ
+ देखो, जनहितषी भाग १४, अंक ६ ( पृ०१६१) नया जैनसाहित्यसंशोer' अंक प्रथममें मुनि जिनविजयजीका लेल ।