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समन्तभद्रके प्रन्योंका संक्षिप्त परिचय अथवा अन्योंके पच है जो अभी तक अज्ञात अथवा अप्रास है । प्राश्चर्य नहीं जो ये भी इस ' तत्वानुशासन' ग्रंथके ही पद्य हों। यदि ऐसा हो और यह ग्रन्थ उपलब्ध हो जाय तो उसे जैनियों का ही नहीं किन्तु विज्ञजगतका महाभाग्य समझना चाहिये । ऐसी हालनमें इस ग्रन्थकी भी शीघ्र खोज होनेकी बड़ी जरूरत है।
यहाँ पर में इतना और भी प्रकट कर देना चाहता हूं कि स्वामी समन्तभद्र मे शताब्दियों बाद बने हुए रामसेनके तत्वानुशामन में एक पद्य निम्न प्रकारमे पाया जाना है
ममाऽहंकारनामानी सेनान्यौ तौ च तत्मुतौ ।
यदानः मुदर्भेदो मोहव्यूहः प्रवर्त्तने ।। १३ ।। इसमें म्पकालंकार-द्वारा ममकार और प्रहंकारको मोहगजाके दो सेनापति बननाया है और उनके द्वारा उस दर्भेद मोहव्यूहके प्रवर्तित होनंका उल्लेख किया है जिसके राग-द्वेष काम-क्रोधादि प्रमुख प्रग होने है । इम पद्यके प्राशयसे मिलता-जुलना एक प्राचीन पद्य प्राचार्य विद्यानन्दने युक्तानुगासनकी टीकामें 'नया चोक्त" वाक्यके माथ उद्धृत किया है, जो इस प्रकार है
ममकाराकारौ मचियाविव मोहनीयराजम्य ।
गगादि सकलपरिकर-परिपोषणतत्परौ मततम् ।। इममें ममकार और अहंकारको मोहराजाके दो मन्त्री बदलाया है और लिखा है कि ये दोनो मन्त्री राग-द्वेष-काम-क्रोधादिम्प मारे मोह-परिवारको परिपष्ट करने में सदा तत्पर रहते है । यह पद्य अपने मूलरूपमें अन्यत्र देखनेको नहीं मिलता और इससे मेरी यह कल्पना एवं धारणा होती है कि इसका मूलस्थान संभवतः समन्तभद्रका उक्त तन्वानुशासन ही है। इसी पद्यमें कुछ फेर-फार करके अथवा रूपकको बदलकर प्रा० गममेनने अपने उक्त पचको सृष्टि की है।
८ प्राकृतव्याकरण 'जैनग्रंथावली से मालूम होता है कि समन्तभद्रका बनाया हुमा एक 'प्राकृतव्याकरण' भी है जिसकी श्लोकसंख्या १२०० है । उक्त ग्रंथावलीमें इस ग्रन्थका