________________
६२
· जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश पारुरोह गिरि तत्र विपुलं विपुलश्रियं । प्रबोधार्थे स लोकानां भानुमानुदय यथा ।। ६२ ।। ततः प्रबुद्धवृत्तान्तैरापतद्भिरितस्ततः । । जगत्सुरासुरैाप्तं जिनेन्द्रस्य गुणैरिव ।। ६३ ।।
इन्द्राऽग्निवायुभूत्याख्या कौण्डिन्याख्याश्च पण्डिताः । इन्दनोदयनाऽऽयाताः समवस्थानमर्हतः ॥ ६॥ प्रत्येक संहिताः सर्वे शिष्याणां पंचभिः शतैः । त्यक्ताम्बरादिसम्बन्धा संयमं प्रतिपेदिरे ॥ ६ ॥ प्रत्यक्षीकृतविश्वार्थ कृतदोपत्रयक्षयं । जिनेन्द्र गोतमोपृच्छत्तीर्थार्थं पापनाशनम् ॥ ८ ॥ स दिव्यध्वनिना विश्वसंशयच्छेदिना जिनः । ददभिध्वनिधीरेण योजनान्तरयायिना || || श्रावणस्यासिते पक्षे नक्षत्रेऽभिजिति प्रभुः । प्रतिपद्य ह्न पूर्वाह्न शासनार्थमुदाहरत ॥११॥
-हरिवंशपुराण, द्विः सर्ग इस विषयमें धवल और जयघवल नामके सिद्धान्तग्रन्थों में, श्रीवर्द्धमान महावीरके अर्थकर्तृत्वकी-तीर्थोत्पादनकी--द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावरूपमे प्ररूपणा करते हुए, प्राचीन गाथानोंके आधारपर जो विशद कथन किया गया है वह अपना खास महत्व रखता है । द्रव्यप्ररूपरगामें तीर्योत्पनिके समय महावीरके शरीरका 'केरिसं महावीरसरीरं' इत्यादिरूपमे वर्णन करते हुए उसे समचतु:संस्थानादि-गुगोंसे विशिष्ट सकल दोपोंमे रहित और राग द्वेष-मोहके अभावका सूचक बतलाया है । क्षेत्रप्ररूपरणामें 'तित्थुप्पत्ती कम्हि खेत्ते' इत्यादिरूपसे तीर्थोत्पत्तिके क्षेत्रका निरूपण और उसमें समवसरण तथा उसके स्थानादिका निर्देश करते हए जो विस्तृत वर्णन दिया है उसका कुछ अंश इस प्रकार है........... "गयणट्टियछत्ततयेण वड्ढमाण-तिहुवणाहिवइत्तचिंधरण सुसोहियए पंचसेलउर-णेरइदिसा-विसय-अइविउल-विउलगिरिमत्थयत्थए गंगोहोब्ब चउहि सुरविरइयचारे हियविसमाणदेवविज्जाहरमणु