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________________ वीर-शासनकी उत्पत्तिका समय और स्थान - ६१ मोहनीय और अन्तराय कर्मका बिल्कुल नाश कर चुके थे-फलत: उनके कोई प्रकारकी इच्छा नहीं थी-तब वे शासनफलकी एषणासे इतने आतुर कैसे हो उठे कि उस यज्ञ-प्रसंगसे अपूर्व लाभ उठानेकी बात सोचकर संध्यासमय ही ऋजुकूला-तटसे चल दिये और रातोंरात ४८ कोस चलकर मध्यमा नगरीके उद्यानमें जा पहुँचे ? और इसलिये प्रथम समवसरणमें केवल देवताओंके ही उपस्थित होने, संध्या समयके पूर्व तक सब नेग-नियोगोंके पूरा हो जाने और फिर अपूर्वलाभको इच्छासे भ० महावीरके संध्या समय ही प्रस्थान करके रातोंरात मध्यमा नगरीके उद्यानमे पहुँचने आदिकी बात कुछ जीको लगती हई मालूम नहीं होती। प्रत्युत इमके, दिगम्बर साहित्य परसे यह स्पष्ट जाना जाता है कि ऋजुकूला तटवाले प्रथम समवसरगमें वीर भगवानकी वारणी ही नहीं खिरी-उनका उपदेश ही नहीं हो मका-और उसका कारण मनुष्योंकी उपस्थितिका प्रभाव नहीं था किन्तु उस गगीन्द्रका अभाव था जो भगवानके मुखमे निकले हुए बीजपदोंकी अपने ऋद्धिवलमे टीक व्याख्या कर सके अथवा उनके आगयको लेकर वीरप्ररूपित अर्थको ठीक रूपमें जनताको समझा सके और या यों कहिये कि जनताके लिथे उपयोगी ऐम द्वादशाङ्ग श्रुतरूपमे वीरवारगीको गूथ सके । ऐसे गरणीन्द्रका उस समय तक योग नहीं भिड़ा था, और इसलिये वीरजिनेन्द्रने फिरसे मौनपूर्वक विहार किया, जो ६६ दिन तक जारी रहा और जिसकी समाप्ति के साथ साथ वे राजगृह पहुँच गये, जहाँ विपुलाचल पर्वत पर उनका वह समवसरण रचा गया जिसमें इन्द्रभूति ( गोतम ) आदि विद्वानोंकी दीक्षाके अनन्तर श्रावणकृष्ण-प्रतिपदाको पूर्वाह्नके समय अभिजित नक्षत्र में वीर भगवानको सर्वप्रथम दिव्यवाणी खिरी और उनके शासन-तीर्थकी उत्पत्ति हुई। जैसाकि श्री जिनसेनाचार्यके निम्न वाक्योंसे प्रकट है पट्षष्ठिदिवसान् भृयो मौनेन विहरन् विभुः । आजगाम जगख्यातं जिनो राजगृहं पुरं ।। ६१ ।। "बीजपदरिणलीणत्थपरूवणं दुवालसंगाणं कारो गणहरभडारमो गंथकत्तारो ति अन्भुपगमादो । बीजपदाणं वक्खाणो त्ति वुत्तं होदि ।". -धवल, वेयरणाखंड
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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