________________ रत्नकरण्डके कर्तृत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय 465 'देवनन्दी' का वाचक समझते थे और वैमा समझने के कारण ही उन्होंने उक्त पद्यमें देवनन्दीके लिये उसका प्रयोग किया है, क्योंकि वादिराजने अपने न्याय-विनिश्चय-विवरणमें अकलंकके लिये 'देव' पदका बहुत प्रयोग किया है। इतना ही नहीं बल्कि पार्श्वनाथचरितमें भी वे 'तर्कभूवल्लभो देवः स जयत्यकलंकधीः' इस वाक्यमें प्रयुक्त हुए 'देव' पदके द्वारा अकलकका उल्लेख कर रहे है / और जब अकलकके लिये वे 'देव' पदका उल्लेख कर रहे हैं तब अकलंकसे भी बड़े और उनके भी पूज्यगुरु समन्तभद्रके लिये 'देव' पदका प्रयोग करना कुछ भी अस्वाभाविक अथवा अनहोनी बात नहीं है / इसके सिवाय, उन्होंने न्यायविनिश्चयविवरणके अन्तिम भागमें पूज्यपादका देवनन्दी नामसे उल्लेख न करके पूज्यपाद नामसे ही उल्लेख किया है, जिससे मालूम होता है कि यही नाम उनको अधिक इष्ट था। ऐमी स्थितिमें यदि वादिराजका अपने द्वितीय पद्यमे देवनन्दि-विषयक अभिप्राय होना तो वे या तो पूरा देवनन्दी नाम देते या उनके 'जैनेन्द्र' व्याकरणका साथ में स्पष्ट नामोल्लेख करते अथवा इस पद्यको रत्नकरण्डके उल्लेव वाले पद्यके बादमें रखते, जिसमे समन्तभद्रका स्मरण-विषयक प्रकरण समाप्त होकर दूसरे प्रकरणका प्रारम्भ ममझा जाता। जब ऐमा कुछ भी नहीं है तब यही कहना ठीक होगा कि इस पद्यमें देव' विशेषणके द्वारा समन्तभद्रका ही उल्लेख किया गया है। उनका अचिन्त्य महिमासे युक्त होना और उनके / जैसा कि नीचे के उदाहरणोंमे प्रकट है:''देवस्तार्किकचकवूडामणिभूयात्स वः श्रेयसे" | पृ० 3 "भूयो मेदनयावयाहगहनं देवस्य यद्वाडमयम्" / "तथा च देवस्यान्यत्र वचनं “व्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रत्यक्षं स्वत एव न"। प्रस्ताव 1 " देवस्य शासनमतीवगभीरमेतत्तात्पर्यत: क इव बोद्धमतीव दक्षः / " प्रस्ताव 2 * "विवानन्दमनन्तवीर्यसुखदं श्रीपूज्यपादं दयापालं सन्मतिसागर ....... वन्दे जिनेन्द्र मुंदा"।