________________ 468 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाशं . (समन्तभद्रको) कहीं भी नहीं दिया गया . ' इसके उत्तरमें जब मैंने 'स्वामी समन्तभद्र धर्मशास्त्री, ताकिक और योगी तीनों थे' इस शीर्षकका लेखा लिखा और उसमें अनेक प्रमाणोंके प्राधार पर यह स्पष्ट किया गया कि समन्तभद्र योगीन्द्र थे तथा 'योगी' और 'योगीन्द्र' विशेषणोंका उनके नामके साथ स्पष्ट उल्लेख भी बतलाया गया तब प्रेमीजी तो उस विषय में मौन हो रहे, परन्तु प्रो० साहबने इस चर्चाको यह लिखकर लम्बा किया कि " मुख्तार माहब तथा न्यायाचार्यजीने जिस प्राधार पर 'योगीन्द्र' शब्दका उल्लेख प्रभाचन्द्र-कृत स्वीकार कर लिया है वह भी बहुन कथा है / उन्होंने जो कुछ उसके लिये प्रमाण दिये हैं उनमें जान पड़ता है कि उक्त दोनों विद्वानोंमेसे किसी एकने भी अभी तक न प्रभाचन्द्रका कथाकोष स्वयं देखा है और न कही यह स्पष्ट पढ़ा या किमीमे सुना कि प्रभाचन्द्रकृत कथाकोषमे समन्तभद्रके लिये 'योगीन्द्र' शब्द पाया है। केवल प्रेमीजीने कोई बीस वर्ष पूर्व यह लिख भेजा था कि "दोनों कथानों में कोई विशेष फर्क नहीं है, नेमिदत्तकी कया प्रभाचन्द्रकी गयकथाका प्राय: पूर्ण अनुवाद है'। उसीके प्राधारपर मात्र उक्त दोनों विद्वानोंको "यह कहने में कोई प्रांपत्ति मालूम नहीं होती कि प्रभाचन्द्र ने भी अपने गद्य-कथाकोपमें स्वामी समन्त मद्रको 'योगीन्द्र' रूपमें उल्लेखित किया है।" इसपर प्रभचन्द्रके गयकपाकोपको मंगाकर देखा गया और उसपरमे समनभद्रको 'योगी' तथा 'योगीन्द्र' बतलाने वाले जब डेढ दर्जनके करीब प्रमाण न्यायाचार्यजीने अपने अन्तिम लेख में : उद्धृत किये तब उसके उत्तरमें प्रो. साहब अब अपने पिछने लेख में यह कहने बैठे है, जिसे वे नेमिदत-कयाकोपके अनुकूल पहले भी कह सकते थे, कि "कथानकमें समन्तभद्रको केवल उनके कपटवेषमें ही योगी या योगीन्द्र कहा है, उनके जैनवेषमें कहीं भी उक्त शब्दका प्रयोग नहीं पाया जाता"। यह उत्तर भी वास्तवमें कोई उत्तर नहीं है। इसे भी केवन * अनेकान्त वर्ष 7 किरण 3-4, पृ० 26,30 अनेकान्त वर्ष 7 किरण 5-6, पृ० 42, 48 अनेकान्त वर्ष 8 किरण 10-1110 420-21