________________ रत्नकरएडके कर्तृत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय 466 उत्तरके लिये ही उत्तर कहा जा सकता है / क्योंकि समन्तभद्रके योग-चमत्कारको देखकर जब शिवकोटिराजा, उनका भाई शिवायन और प्रजाके बहुतसे जन जैनधर्ममें दीक्षित होगये तब योगरूपमें समन्तभद्रकी ख्याति तो और भी बढ़ गई होगी और वे प्राम तौरपर योगिराज कहलाने लगे होगे, इसे हर कोई समझ सकता है। क्योंकि वह योगचमत्कार समन्तभद्रके साथ सम्बद्ध था न कि उनके पाण्डुराङ्ग-तपस्वीवाले वेषके साथ / ऐसा भी नहीं कि पाण्डुराङ्गतपस्वीके वेषवाले ही 'योगी' कहे जाते हों जैनवेषवाले मुनियोंको योगी न कहा जाता हो। यदि ऐसा होता तो रत्नकरण्डके कर्ताको भी 'योगीन्द्र' विशेषणसे उल्लेखित न किया जाता / वास्तवमे 'योगी' एक सामान्य शब्द है जो ऋषि, मुनि, यति, तपस्वी प्रादिकका वाचक है; जैसा कि धनञ्जय-नाममालाके निम्न वाक्यसे प्रकट है ऋपियतिमुनिभिक्षुस्तापसः संयतो व्रती। तपस्वी संयमी योगी वर्णी साधुश्च पातु वः / / 3 / / जनसाहित्य में योगीकी अपेक्षा यति-मुनि-तपस्वी जैसे शब्दोंका प्रयोग अधिक पाया जाता है, जो उसके पर्याय नाम हैं। रत्नकरण्डमें भी यति, मुनि और तपस्वी शब्द योगीके लिये व्यवहृत हुए है / तपस्वीको प्राप्त तथा आगमकी तरह सम्पग्दर्शनका विषयभूत पदार्थ बतलाते हुए उसका जो स्वरूप एक पद्य 8 में दिया है वह खासतौर से ध्यान देने योग्य है / उसम लिखा है कि- 'जो इन्द्रियविषयों तथा इच्छाओंके वशीभूत नहीं है, प्रारम्भों तथा परिग्रहोंसे रहित है और ज्ञान, ध्यान एवं तपश्चरणोंमें लीन रहता है वह तपस्वी प्रशंसनीय है।' इस लक्षणसे भिन्न योगीके और कोई सींग नहीं होते / एक स्थानपर सामायिकमें स्थित गृहस्थको 'चेलोपसष्टमुनि' की तरह यतिभावको प्राप्त हुआ लिखा है / / चेलोपसृष्टमुनिका पभिप्राय उस नग्न दिगम्बर जैन योगीसे है जो मौन-पूर्वक * विषयाशा-वशाऽतीतों निरारम्भोऽपरिग्रहः।। मान-ध्यान-तपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते // 10 // + सामयिके सारम्भा: परिग्रहा नैव सन्ति सर्वेऽपि / चेलोरसृष्टमुनिरिव गृही तदा याति यतिभवाम् // 102 //