________________ -~~ - ~-~ ~ - ~~ रत्नकरण्डके कर्तृत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय 467 खींचतानके सिवाय और कुछ भी अर्थ नहीं रखता। यदि प्राज कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है तो उसका यह प्राशय तो नहीं लिया जा सकता कि वह कभी था ही नहीं। वादिराजके ही द्वारा पार्श्वनाथचरितमें उल्लिखित 'सन्मतिसूत्र की वह विवृति और विशेषवादीकी वह कृति प्राज कहां मिल रही है ? यदि उनके न मिलने मात्रसे वादिराजके उल्लेख विषयमें अन्यथा कल्पना नहीं को जा सकती तो फिर समन्तभद्र के शब्दशास्त्रके उपलब्ध न होने मात्रसे ही वैसी कल्पना क्यो की जाती है ? उममें कुछ भी पौचित्य मालूम नही होता / अतः वादिराजके उक्त द्वितीय पद्य नं० 18 का यथावस्थित क्रमकी दृष्टिसे समन्तभद्र-विषयक अर्थ लेने में किसी भी बाधाके लिये कोई स्थान नहीं है। रही तीसरे पद्यकी बात, उसमें 'योगीन्द्रः' पदको लेकर जो वाद-विवाद अथवा कमेला खड़ा किया गया है उसमें कुछ भी सार नहीं है / कोई भी बुद्धिमान् ऐसा नहीं हो सकता जो ममन्तभद्रको योगी अथवा योगीन्द्र मानने के लिये तैयार न हो, खासकर उस हालत में जब कि वे धर्माचार्य थे-सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्यरूप पञ्च प्राचारोंका स्वयं प्राचार करनेवाले और दूसरोको पाचरण करानेवाले दीक्षागुरुके रूपमें थे-'पद्धिक' थे-तपके बलपर चारण ऋद्धिको प्राप्त थे--और उन्होंने अपने मंत्ररूप वचनबलसे शिवपिण्डी में चन्द्रप्रभकी प्रतिमाको बुला लिया था ('स्वमन्त्रवचन-वाहतचन्द्रप्रभः')। योग-साधना जैनमुनिका पहला कार्य होता है और इसलिये जैनमुनिको 'योगी' कहना एक सामान्य-सी बात है, फिर धर्माचार्य अथवा दीक्षागुरु मुनीन्द्रका तो योगी अथवा योगीन्द्र होना और भी अवश्यंभावी तथा अनिवार्य ही जाता है। इसी ते जिम वीरशासनके स्वामी समन्तभद्र अनन्य उपासक थे उसका स्वरूप बतलाते हुए, युक्त्यनुशासन ( का० 6) में उन्होंने दया, दम और त्यागके साथ समाधि ( योगसाधना ) को भी उसका प्रधान अंग बतलाया है। तब यह कैसे हो सकता है कि वीरशासनके अनन्यउपासक भी योग-साधना न करते हों और इसलिये योगी न कहे जाते हों ? ' सबसे पहले मुहृदर पं० नाथूरामजी प्रमीने इस योगीन्द्र -विषयक चर्चाको 'क्या रत्नकरण्डके कर्ता स्वामी समन्तभद्र ही है. ?' इस शीर्षकके अपने लेखमें उठाया था और यहाँ तक लिख दिया था कि “योगीन्द्र-जैसा विशेषण तो उन्हें