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________________ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश एवं विविह-णएहिं जो वत्थू ववहरेदि लायम्मि / दसण-गाण-चरितं सो साहदि सग्ग-मोवस्वं च / / 7 / / इसके मनन्तर विरला णिमुहि तच्चं' इत्यादि गाथा नं० 276 है, जो मोपदेशिक ढंगको लिये हा है और अन्यको तया इस अधिकारकी कथन-लीके साथ कुछ संगत मालूम नहीं होती-खामकर क्रमप्राप्त गाथा नं० 280 की उप. स्थितिम, जो उमकी स्थितिको और भी सदिग्ध कर देती है, और जो निम्न प्रकार है: तमचं कहि जमागं गिच्चलभावेण गिरे जो हि। तं चि य भावइ सया सा वि य तच्च वियागई / / 280 // इसमें बतलाया है कि, 'जो उपयुकतन्यको--जीवादि-विषयक तत्त्वज्ञान - को प्रधवा उसके ममको-स्थिरभाव--हसताके माय-ग्रहण करता है पोर सदा उसकी भावना रम्बना है वह तन्त्रको मविशेगमपम जानने में ममर्थ होता है। इसके अनन्तर दो गाथा और देकर एव लोयमहावं जो भायदि इत्यादि. रूपमे ग था नं. 283 दी हुई है. जो लोम्भावनाक. उपमहारको लिये हु" उसकी ममाभिमुचक है और अपने म्यानपर श्रीक गम ग्थिन है / व दो गाथा इस प्रकार है: को ग वमो इन्धिजग कम्म गा मया वडियं माग। को इंदिगण जिग्री की गा क.माह मंतन // 1 // मोगा वमोत्थिजगणे माण जिश्री इंदिहि मांगा। जाण य गिद्ददि गंथ अन्भनर बाहिर सव्यं / / 2 / / इनमें पहली गाथा में चार प्रस्न रिये गा है...कोन त्रिीजनोंक वाम नहीं होना? मदन-कामदेवरी किमम मान बरिन नाह'.३ कोन इन्दियोंके द्वारा जीता नही जाता ?, 8 कोन कषायोमे मतम नहीं होता ? दूगर गायाम केवल दो प्रनोका ही उत्तर दिया गया है जो कि एक बटन वान बात है, और वह उत्तर यह है कि 'स्त्री अनारे बगम वा नहीं होता, प्र यह इन्द्रियों से जीता नही जाता जा माहम बाप पोर प्राभ्यन्तर समस्त ना. ग्रहको ग्रहण नहीं करता है।' .
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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