________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा और स्वामिकुमार उमास्वातिके तत्वार्थमूत्र में इन भावनापोंका क्रम एक स्थानपर ही नहीं बल्कि तीन स्थानोंपर विभिन्न है। उममें प्रशरणके मनन्तर एकत्व-अन्यत्व भावनामोंको न देकर संमार भावनाको दिया है और संसाग्भावनाके अनन्तर एकरस- अन्यत्व भावनामों को क्या है: लोकभावनाको समारभावनाके बाद न वकर निलंगभावनाके बाद क्या है और धर्मभावनाका बोधि-दुलंभमे पहले स्थान न देकर उमके अन्त में स्थापित किया है; जैम:कि निम्न मूत्रमे प्रकट है "अनिल्याऽर-ममारकत्वाऽन्यायाऽशुच्याऽऽनव-संवर निर्जरा. लोक बधिदुलभ-धमम्याग्याततत्यानुचिन्न नमनुप्रक्षाः / / 1.7 / / और इससे मा जाना जाता है कि भावनाप्रोका यह कम, जिसका पूर्व साहित्यपरम ममर्थन नही होना, बादको उमास्वाति के द्वारा प्रति हुया है। या िकयानुप्रेक्षाम इमी कमका पनाया गया है / अत: यह ग्रन्थ उमाम्वनिम पूर्वका नही बनता पोर जब उमाम्बाम का न बनना नव यह उन स्वामिक निकेयकी कृति भी नही हो सकता जो हरिपणादिनाथापकी उन तयाके मुख्य पात्र है, भगवती प्रारापना की गाथा न. 1586 मे 'अग्निदायन अग्निपुत्र) के नाममे उन्नति है प्रयवा अनुन रोपपादाङ्गमे गिन-दहा धनगागमे जिनका नाम है। इसमें अधिक प्रत्यकार मोर सन्यक समय-मम्बन्धमे दम प्रमविभिन्नमापरमे पोर कुछ फलित नहीं होता। प्रब रही दूसरे कारणकी गन, जहाँ तक उसपर विचार दिया और पत्यकी पूर्वापर चिनिको देवा उमपरमे मुझे यह करने में कोई मकाच नहीं होता कि ग्रन्वमें उक्त गाथा न को स्थिति बहुत ही दिग्ध प्रौर वह पडती है। क्योंकि उक्त गाया 'मोकभावना' अधिकारके पन्नगत है, जिसमें मोर मचान, सोकयनी जीवाट यह दस्य, जीवके मामगुण पोर धनज्ञानके विकल्परूप नेगमारि सात नय. इन सबका मंक्षेपमें ही सुन्दर व्यवस्थित वर्णन नापा 0 115 मे 278. नक पाया जाता है। 2.8 वी मायामे नयों के कपनका उपसंहार इस प्रकार किया गया है: