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________________ गंधस्ति महाभाष्यकी खोज .. २७३ यह स्पष्ट ध्वनि निकलती है कि वह समन्तभद्रका एक स्वतंत्र और प्रधान ग्रंथ है। देवागम (मासमीमांसा) की अन्तिम कारिका भी इसी भावको पुष्ट करती हुई नजर प्राती है और वह निम्न प्रकार है * इतीयमाप्तमीमांसा विहिता हितमिच्छतां । सम्यग्मिथ्योपदेशार्थविशेषप्रतिपत्तये ।। वसुनन्दी प्राचार्यने, अपनी टीकामें, इस कारिकाको 'शास्त्रार्थोपसंहार. कारिका' लिखा है, और इसकी टीकाके अन्तमें समंतभद्रका 'कृतकृत्यः नियंढतत्त्वप्रतिज्ञः * इत्यादि विशेषणोंके साथ उल्लेख किया है । विद्या. नंदाचार्यने प्रष्टसहस्रीमें, इस कारिकाके द्वारा प्रारब्धनिर्वहण-प्रारंभ किये हए कार्यकी परिसमाप्ति ---प्रादि को मूचित करते हुए, 'देवागम' को 'स्वोक्तपरिच्छेदशास्त्र बितलाया है-प्रर्थात, यह प्रतिपादन किया है कि इस शास्त्र में जो दश परिच्छेदोंका विभाग पाया जाता है वह स्वयं स्वामी समन्तभद्रका किया हमा है। प्रकलंकदेवने भी ऐमा ही + प्रतिपादन किया है । और इम सब कथनमे 'देवागम'का एक स्वतंत्र शास्त्र होना पाया जाता है जिसकी समाप्ति उक्त कारिकाके साथ हो जाती है, और यह प्रतीत नहीं होता कि वह किसी टीका अथवा भाष्यका प्रादिम मंगलाचरण है; क्योंकि किसी ग्रंथपर टीका * जो लोग अपना हित चाहते है उन्हे लक्ष्य करके, यह 'प्राप्तमीमांसा' सम्यक् और मिथ्या उपदेशके प्रयविशेषको प्रतिपत्तिके लिये कही गई है। शास्त्रके विषयका उपसंहार करनेवाली अथवा उसकी समाप्तिकी सूचक कारिका। * ये दोनों विशेषगण ममन्तभद्रके द्वारा प्रारंभ किये हुए ग्रंथकी परिसमासिको मूचित करते है। "इति देवागमाख्ये स्वोक्तपरिच्छेदे मास्त्र ( स्वेनोक्ता: परिच्छेदा दश यस्मिस्तत् स्वोक्तपरिच्छेदमिति ग्राह्य तत्र ) विहितेयमाप्तमीमांसा सर्वज्ञ-विशेषपरीक्षा............ -प्रष्टसहस्री। + "इति स्वोक्तपरिखेन्दविहितेयमासमीमांसा सर्वज्ञविशेषपरीक्षा।" -मष्टशती
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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