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जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश
प्रथवा भाष्य लिखते हुए नमस्कारादि- रूपसे मंगलाचरण करनेकी जो पद्धति पाई जाती है वह इससे विभिन्न मालूम होती है और उसमें इस प्रकारसे परिच्छेदभेद नहीं देखा जाता। इसके सिवाय उक्त कारिकासे भी यह सूचित नहीं होता कि यहां तक मंगलाचरण किया गया है और न ग्रंथके तीनों टीकाकारों-कलंक, विद्यानंद तथा वसुनन्दी नामके प्राचार्यो— मेंसे हो किसीने अपनी टीकामें इसे 'गंधहस्ति महाभाष्यका मंगलाचरण' सूचित किया है, बल्कि गंधहस्ति महाभाष्यका कहीं नाम तक भी नहीं दिया। और भी कितने ही उल्लेखों से देवागम ( प्राप्तमीमांसा ) एक स्वतंत्र ग्रंथके रूपमें उल्लेखित मिलता है * | श्रौर इस लिये कवि हस्तिमल्लादिकके उक्त पद्य परसे देवागमकी स्वतंत्रतादि-विषयक जो नतीजा निकाला गया है उसका बहुत कुछ समर्थन होता है ।
कवि हस्तिमलादिक के उक्त पद्यसे यह भी मालूम नही होता कि जिस तत्त्वासूत्र पर समन्तभद्रने गंधहस्ति नामका भाष्य लिखा है वह उमास्वातिका तत्त्वार्थसूत्र' अथवा 'तत्त्वार्थशास्त्र' है या कोई दूसरा तत्त्वार्थसूत्र । हो सकता है कि वह उमास्वातिका ही तत्त्वार्थसूत्र हो, परन्तु यह भी हो सकता है कि वह उससे भिन्न कोई दूसरा ही तत्त्वार्थमुत्र अथवा तत्त्वार्थशास्त्र हो, जिसकी रचना किसी दूसरे विद्वानाचार्य के द्वारा हुई हो; क्योंकि तत्त्वार्थ सूत्रोंके रचयिता अकेले उमास्वानि ही नहीं हुए है - दूसरे प्राचार्य भी हुए है और न सूत्रकां प्रथं केवल गद्यमय
* यथा ---
५. गोविन्दभट्ट इत्यासीद्विद्वान्मिथ्यात्ववर्जितः
देवगमनसूत्रस्य श्रुत्वा सदृशेनान्वितः । विक्रान्तकौरव-प्रशस्ति
:- स्वामिनश्चरितं नस्य कस्य तो विस्मयावहम् ।
देवागमेन सर्वज्ञो येनाद्यापि प्रदश्यते ॥ - वादिराजसूरि (पादयं च० )
३ - जीयात् समन्तभद्रस्य देवागमनसंजिनः ।
स्तोत्रस्य भाष्यं कृतवानकलंकी महद्धिकः ।।
अलंकार यस्सावं मातमीमांसितं मतं ।
स्वामिविद्यादिनंदाय नमस्तस्मै महात्मने ।
- नगरताल्लुकेका शि० लेख नं० ४६ (E. C, VIII.)