________________ 'समन्तभद्रकी स्तुतिविद्या (1) इस टीकाके कर्ता 'नरसिंह' नहीं किन्तु 'वसुनन्दि' जान पड़ते है अन्यथा ६ठे पद्यमें प्रयुक्त 'कुरुते वसुनन्द्यपि' वाक्यकी संगति नहीं बैठती। (2) एक तो नरसिंहकी सहायतासे और दूसरे स्वयं स्तुतिविद्याके प्रभावसे वसुनन्दि इम टीकाको बनानेमें समर्थ हुए। (3) पद्योंका ठीक अभिप्राय समझमें न पानेके कारण ही भाषाकार (पं० लालाराम) ने इस वृत्तिको अपनी कल्पनासे 'भव्योतमनरसिंहभट्टकृत' छपा दिया। इस मत की तीसरी बातमें तो कुछ तथ्य मालूम नही होता; क्योंकि हस्तलिखित प्रतियों में टीकाको भव्योतमनरसिंहकृत लिखा ही है और इसलिये 'भट्ट विशेषणको छोड़कर वह भाषाकारकी कोई निजी कल्पना नहीं है। दूसरी बातका यह अंग ठीक नहीं जंचता कि वमुनन्दिने नरसिंहकी सहायतासे टीका बनाई; क्योंकि नरसिंहके लिये परोक्षभूतकी क्रिया 'बभूव' का प्रयोग किया गया है, जिसमे मालूम होता है कि वमुनन्दिके समय में उसका अस्तित्व नहीं था / अब रही पहनी बात, वह प्रायः ठीक जान पड़ती है। क्योंकि टीकाके नरसिंहकृत होनेमे उसमें छठे पद्यकी ही नहीं किन्तु चौये पद्यकी भी स्थिति ठीक नही बैठती / ये दोनों पद्य प्राने मध्यवर्ती पद्यसहित निम्न प्रकार है: तस्याः प्रबोधकः कश्चिन्नास्तीति विदुपां मतिः / यावत्तावबभूवैको नरसिंहो विभाकरः / / 4 / / दुर्गमं दुर्गमं काव्यं श्रूयते महतां वचः। नरसिंह पुनः प्राप्तं सुगम सुगमं भवेत् // 5 // स्तुतिविद्यां ममाश्रित्य कस्य न क्रमते मतिः ! तवृत्ति येन जाड्य तु कुरुते वसुनन्द्यपि // 6 // यहां ४थे पद्यमें यह बतलाया है कि 'जब तक एक नरसिंह नामका सूर्य उस भूतकालमें उदित नहीं हना था जो अपने लिये परोक्ष है, तब तक विद्वानोंका यह मत था कि ममन्तभद्रकी 'स्तुतिविद्या' नामकी सुपमिनीका कोई प्रबोधकउसके अर्थको खोलने-खिलाने वाला नहीं है।' इस वाक्यका, जो परोअभूतके क्रियापद 'बभव' को साथ में लिये हुए है, उस नरसिंहके द्वारा कहा जाना नहीं