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________________ 256 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश बनता जो स्वयं टीकाकार हो / पांचवें पचमें यह प्रकट किया गया है कि 'महान् पुरुषोंका ऐसा वचन सुना जाता है कि नरसिंहको प्रास हुमा दुर्गमसे दुर्गम काव्य भी सुगमसे सुगम हो जाता है। इसमें कुछ बड़ोंकी नरसिंहके विषयमें काव्यमर्मज्ञ होने विषयक सम्मतिका उल्लेखमात्र है और इसलिये यह पच नरसिंहके समयका स्वयं उसके द्वारा उक्त तपा उसके बादका भी हो सकता है। शेष छठे पद्यमें स्पष्ट लिखा ही है कि स्तुतिविद्याको समाधित करके किसकी बुद्धि नहीं चलती ? -जरूर चलती और प्रगति करती है। यही वजह है कि जडमति होते हुए वसुनन्दी भी उस स्तुतिविद्याकी वृत्ति कर रहा ऐसी स्थिति में यही कहना पड़ता है कि यह वृत्ति (टीका ) वसुनन्दीकी कृति है-नरसिंहको नहीं / नरसिंहको वृत्ति वसुनन्दीके सामने भी मालूम नहीं होती, इसलिये प्रस्तुत वृत्तिमें उसका कही कोई उल्लेख नहीं मिलता। जान पड़ता है वह उस समय तक नष्ट हो चुकी थी और उसकी 'किंवदन्ती' मात्र रह गई थी / प्रस्तु; इस वृत्तिके कर्ता वसुनन्दी संभवतः वे ही वसुनन्दी आचार्य जान पड़ते हैं जो देवागमवृत्तिके कर्ता है; क्योंकि वहां भी 'वसुनन्दिना जडमतिना' जैसे शब्दोंद्वारा वसुनन्दीने अपने को 'जडमति' सूचित किया दोनों वृत्तियोंका ढंग भी समान है-दोनोंमें पद्योंके पदक्रममे अर्थ दिया गया है और 'किमुक्तं भवति', 'एतदुक्तं भवति'-जैसे वाक्योंके साथ अर्थका समुच्चय अथवा सारसंग्रह भी यथारुचि किया गया है / हाँ, प्रस्तुत वृत्तिके अन्तमें समाप्ति-मूचक वैसे कोई गद्यात्मक या पद्यात्मक वाक्य नहीं है जैसे कि देवागमवृत्तिके अन्तमें पाये जाते हैं / यदि वे होते तो एकको वृतिको दूसरेकी वृत्ति समझ लेने-जैसी गड़बड़ ही न हो पाती / बहुत संभव है कि वृत्तिके मन्तमें कोई प्रशस्ति-पद्य रहा हो और वह किसी कारणवश प्रति-लेखकोंसे छूट गया हो; जैसा कि अन्य अनेक ग्रन्थोंकी प्रतियोमें हुमा है और खोजसे जाना गया है / उसके छूट जाने अथवा खण्डित होजानेके कारण ही किसीने उस पुष्पिकाकी कल्पना की हो जो प्राधुनिक (100 वर्षके भीतरकी) कुछ प्रतियोंमें पाई जाती है / इस ग्रन्थकी अभी तक कोई प्राचीन प्रति सामने नहीं माई / प्रतः
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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