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________________ सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन 537 आकाशमवगाहाय तदनन्या दिगन्यथा / तावप्येवमनुच्छेदात्ताभ्यां वाऽन्यमुदाहृतन // 16-25 / / प्रकाशवदानिष्टं स्यात्साध्ये नार्थम्तु न श्रमः / जीव-पुद्गलयोरेव परिशुद्धः परिग्रहः / / 16-26 // " इन पद्योमें द्रव्योंकी चर्चा करते हुए धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्योंकी मान्यताको निरर्थक ठहराया है तथा जीव और पुद्गलका ही परिशुद्ध परिग्रह करना चाहिए अर्थात् इन्ही दो द्रव्योंको मानना चाहिए, प्रेमी प्रेरणा की है / यह मब कथन भी मन्मतिमूत्रके विरुद्ध है; क्योकि उसके तृतीय काण्ड हव्यगत उत्पाद तथा व्यय (नाग)के प्रकारांको बतलाते हुए उत्पादके जो प्रयोगजनित (प्रयन्त जन्य) तथा वैनसिक ( स्वाभाविक ) ऐसे दो भेद किये है उनमें वैनसिक उत्पाद के भी समुदायकृत तथा ऐकत्विक ऐमे दो भेद निर्दिष्ट किये हैं और फिर यह बतलाया है कि एकत्विक उत्पाद प्राकामादिक तीन द्रव्यों ( प्राकाग, धर्म, अधमं ) में पनिमित्तम होता है और इसलिये अनियमित होता है / नाशकी भी ऐसी ही विधि बतलाई है / इमसे सन्मतिकार मिद्धमेनकी इन तीन ग्रमूर्तिक द्रव्योंके, जो कि एक एक है अस्तित्व-विषयमें मान्यता स्पष्ट है / यथा "प्पाश्रा वियप्पा पागज शिणी य विस्समा चेव / नन्थ उ पागजगिश्रो समुदयवायो अपरिसुद्धा / / 3 / / माभाविप्रो वि समुदयको व्य एगत्तिओ व्व हो जाहि / आगासाईप्राणं तिराह परपञ्चोऽणियमा / / 33 / / विगमम्म वि एम विही ममुदय जनियम्मि सो उ वियप्यो। समुदयविभागमेत्तं अत्यंतरभावगमणं च // 34 // " इस न ह यह निश्चयद्वात्रिशिका कतिपय द्वात्रिशिकानों, न्यायावतार और सन्मतिके विरुद्ध प्रतिपादनोंको लिए हए है। सन्मतिके विरुद्ध तो वह सबसे अधिक जान पड़ती है और इसलिये किसी तरह भी सन्मतिकार सिद्धसेनकी कृति नही कही जा सकती। यही एक द्वात्रिशिका ऐमी है जिसके अन्त में उसके कर्ता
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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