________________ 536 . जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश से युक्त बतलाते हुए वह इस तरह सम्यग्दर्शनरूप भी है, ऐसा प्रतिपादन किया है (2-32, 33 ): "एवं जिणपण्णत्ते सद्दहमाणस्स भावओ भावे / पुरिसस्साभिणिबोहे दसणसहो हवाइ जुत्ता / / 2-32 / / सम्मण्णाणे णियमेण दसगं दसणे उ भयणिज्ज / सम्मएगणाणं च इमं ति अत्थी हाइ उववरणं / / 2-33 // " "भविश्रो सम्मइंसण-कारण-चरित्त-पडियत्ति-संपएणो / णियमा दक्खंतकडो त्ति लक्खणं हे उवायरस / / 3-54 // " निश्चयात्रिशिकाका यह कथन दूसरी कुछ द्वात्रिशिकानोंके भी विरुद्ध पड़ता है, जिसके दो नमूने इस प्रकार है"क्रियां च संज्ञान-वियोग-निष्फलां क्रिया-विहीनां च विवोधमपदम् / निरभ्यता क्लेश-ममूह-शान्तये त्वया शिवायालिखितव पद्धतिः।।१-२६|| "यथाऽगद-परिज्ञानं नालमाऽऽमय-शान्तये। प्रचारित्रं तथा ज्ञानं न बुद्ध्यध्य(व्य)वमायतः // 17-2 // " इनमें पहली द्वात्रिशिकाके उद्धरामे यह मूचित किया है कि 'वीरजिनेन्द्रने सम्यग्जानमे रहिन क्रिया (चारित्र) को और किपासे विहीन सम्यग्ज्ञानकी मम्पदाको क्लेशममूहको शान्ति अथवा गिवप्राप्तिके लिये निष्फल एवं असमर्थ बतलाया है और इसलिये ऐसी क्रिया तथा ज्ञानसम्बदाका निषेध करते हुए ही उन्होंने मोक्षपद्धतिका निर्माण किया है।' और १७वी द्वात्रिशिकाके उद्धरणमें बनलाया है कि 'जिस प्रकार रोगनाशक औषधिका परिज्ञानमात्र रोगको शान्तिकं लिये समर्थ नहीं होता उसी प्रकार चारिवरहितज्ञानको समझना चाहिए.- वह भी अकेला भवरोगको शान्त करने में ममर्थ नही है। ऐसी हालत में ज्ञान, दर्शन और चारित्रको अलग-अलग मोक्षकी प्राप्तिका उपाय बतलाना इन द्वात्रिनिकायोंके भी विरुद्र ठहरता है। "प्रयोग-विसमाकर्म तदभावस्थितिस्तथा / लोकानुभाववृत्तान्तः किं धर्माऽधर्मयोः फलम् / / 16-24 / /