________________ सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन तो मणपउजवणाणं णियमा णाणं तु णिहिट्ठं / / 16 / / " "मणपजजवणाणं दसणं ति तेणेह होइ ण य जुत्तं / भएणइ णाणं गाइदियम्मि ण घडादा जम्हा रा" "मइ-सुय-रणाणिमित्ता छदमाथे हाइ अत्थ उचलंभो। एगयरम्मि वि तेमि रण इंसां दसगणं कत्तो ? ||27|| जं पच्चखगहणं णं इंति मयगागा-मम्मिया अत्था / तम्हा दंमाग मह। गा हाइ सयले वि सुयणाणे // 28 // ऐसी हालतमें यह और भी स्पष्ट हो जाता है कि निश्चयद्वात्रिगिका (16) उन्ही मिद्धमेनाचार्य की कृति नहीं है जो कि ममनिमूत्रके कर्ता है-दोनोंके कर्ता सिद्धमेननामकी ममानताको धारण करने हा भी एक दूसरेमे एकदम भिन्न हैं / माय हो, यह कहने में भी कोर्ट मकोच नहीं होता कि न्यायावतारके कर्ता सिद्धमेन भी निश्चयात्रिशिका काम भिन्न है; क्योकि उन्होंने श्रुतनानके भेदको स्पष्ट रूप में माना है और उसे अपने अन्य में गब्दप्रमाग अथवा प्रागम (धन-शास्त्र) प्रमाग में रखवा है, जैसा कि न्यायावतारके निम्न वाक्योंसे प्रकट हे : "इप्टेप्टाऽव्याहताद्वाक्यापरमार्थाऽभिधायिनः / तत्व-प्राहिन यात्पन्नं भानं शादं प्रकीर्तितम / / / / ॐ पानापन मनुल्लव्यमहष्ट-विरोधकम् / तत्वोपदेशकामा शास्त्र कापथ-बट्टनम् / / 3 / / " "नयानामेकनिष्ठानां प्रवृत्त: श्नवत्मनि। सम्पूर्णावविनिश्चायि स्याद्वादश्रुतमुच्यते // 30 // " इम मम्बन्धमें पं० मुख लालजीने ज्ञानबिन्दकी परिचयात्मक प्रस्तावनामें, यह बतलाते हुए कि निश्चयद्वात्रिशिका के कर्ता मिद्धनने मति और थ तमें ही नहीं किन्तु प्रवधि और मन: पर्याय में भी प्रागमिद्ध भेद-रेखाके विरुद्ध तर्क ॐ यह पद्य मूलमें स्वामी समन्तभद्रकृत रत्नकरण्ड (समीचीनधर्मशास्त्र)का है. वहीसे उद्धत किया गया है /