________________ 532 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश (3) १६वीं निश्चयद्वात्रिशिकामें 'सर्वोपयोग-द्वविध्यमनेनोक्तमनक्षरम्' इस वाक्यके द्वारा यह सूचित किया गया है कि 'सब जीवोंके उपयोगका द्वं विध्य मविनश्वर है / ' अर्थात् कोई भी जीव संमारी हो अथवा मुक्त, छयस्थज्ञानी हो या केवली सभीके ज्ञान और दर्शन दोनों प्रकारके उपयोगोंका मत्व होता है-यह दूसरी बात है कि एक में वे क्रमले प्रवृत(चरितार्थ)होते हैं और दूसरे में प्रावरण.भावके कारण युगपत् / इससे उम एकोपयोगवादका विरोध प्राता है जिसका प्रतिपादन सन्मतिसूत्र में केवलीको लक्ष्यमे लेकर किया गया है और जिसे अभेदवाद भी कहा जाता है / ऐसी स्थितिमे यह १६वीं द्वात्रिगिका भी सन्मतिसूत्रक कर्ता सिद्ध मेनकी कृति मालूम नही होती। (4) उक्त निश्चयहात्रि शिका(१६)में श्रुनजानको मतिज्ञानमे अलग नहीं माना है-निग्वा है कि मतिज्ञानमे अधिक अथवा भिन्न श्रुतज्ञान कुछ नही है,श्रुतज्ञानको अलग मानना व्यर्य तथा प्रतिप्रगङ्ग दोषको लिये हा है / और इस तरह अवधिज्ञानमे भिन्न मनः पर्य यज्ञान की मान्यताका भी निषेध किया है.-लिखा है कि या तो द्वीन्द्रियादिक जीवों के भी. जो कि प्रार्थना और प्रतिघातके कारण चेष्टा करते हुए देखे जाते हैं .मन पर्ययविज्ञानका मानना युक्त होगा अन्यथा मन:पर्य यज्ञान कोई जुदी वस्तु नही है। इन दोनों मन्नव्योंके प्रतिपादक वाक्य इम प्रकार है: 'वैयाऽतिप्रसंगाया न म यधिक श्रनम् / मर्वेभ्यः केवलं चतुम्तमःक्रम विककृत / / 17 / / " "प्रार्थना-प्रतिघानाम्यां चपन्तद्वीन्द्रियाद य:। मनःपर्यायविज्ञानं युक्तं तप न वाऽन्यथा // 17 // " यह मव कथन मन्मतिमूत्रके विरुद्ध है: क्योकि उसमें अनजान और मन पयंयज्ञान दोनोंको अलग ज्ञानोके गम म्पष्ट रूपमं स्वीकार किया गया है-जंगा कि उसके द्वितीय काण्डगत निम्न वाक्योंसे प्रकट है --- "मणपज्जवणाणंता गाशाम्म यदरिसरणम्म य पिमेमा // 3 // "जेण मणोविसयगयागा दमणं रणथि दबजायागं / तृतीयकाण्डमें भी भागमथुतज्ञानको प्रमाणरूपमें स्वीकार किया है।