________________ 534 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश करके उसे अमान्य किया है। एक फुटनोट-द्वारा जो कुछ कहा है वह इस प्रकार है: 'यद्यपि दिवाकरश्री (मिद्धमेन) ने अपनी बत्तीसी (निश्चय० 16) में मति भोर श्रुतके पभेदको स्थापित किया है फिर भी उन्होंने चिरप्रचलित मति. श्रुनके भेदकी मर्वया अवगणना नहीं की है। उन्होंने न्यायवतार में पागमप्रमाणको स्वतन्त्र रूपसे निर्दिष्ट किया है। जान पड़ता है इस जगह दिवाकर श्रीने प्राचीन परम्पराका अनुसरण किया पौर उक्त बत्तीमी प्रपना सनत्र मत व्यक्त किया। इस तरह दिवाकर श्री के ग्रन्यों में प्रागमप्रमागको स्वतन्त्र अतिरिक्त मानने पोर न माननेवाली दोनों दर्शनान्तरीय धागा देम्बी जानी है जिनका म्बीकार ज्ञानविन्दुमें उपाध्यायजीने भी किया है।" (108) इम फुटनोटमे जो बान निश्चयाविधिका पोर न्यायाय नारके मनिषाविषयक विरोधके ममन्वयमें कही गई है वही उनकी तरफ निम्बयद्वत्रिवि / और मन्मनिक गघिमनापर्यय-विषयक विरोध ममय में भी कही जागा है और ममझनी चाहिये / परन्तु यर मर कथन एकमात्र नो अन्योकी कर. मुंव-मान्यतापर प्रवम्बिा है, जिसका माम्प्रदायिक मानाकारगर कोई भी प्रबल प्राधार नही है पोर मनिये जवना मा. पायाचना और मम्मतिमात्र तीनों को एक ही मिटमेनकन मि न कर दिया जाय दर इम कथनका कुछ भी मूल्य नही है / नाना पाका मन्य पभी ना. मि.: नही है। प्रन्युन इमक द्वात्रिमिका और अन्य ग्रन्पोंके पर विरोधी कायम कारण उनका विभिप्रकक होना पाया जामा)। जान पता है 60 सम्मन्न 2. जीके हृदय में यहाँ विभित्र गिद्धमनीको वनाही उगान नही पोर लिये वे उन ममन्वयको कल्पना करने में नहा है. पाठीक नही।. या मन्मति के कर्ता मिद मेन में बनात विचार नियतिका. .. होते तो उनके निये कोई वजह नही थी कि अन्य प्रभिन अपन बना। विचारों को खाकर दूसरे प्रत्यमे पाने वाड पर विचागेका पनगम करते, बामकर उम हालत में अमिमनिमें उपयोग-मयपी युगादा: की प्राचीन-परम्पराका बन करके अपने पदया-विषयक नये म्यतर विचारोंको प्रकट करने हा देखे जाने है-वहीगर वे धनमान और मन:पयंय -