________________ 564 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश में पाया जाता है. जो कि सर्वनन्दीके लोकविभागको सामने रखकर ही भाषाके परिवर्तनद्वारा रचा गया हैवैश्वे स्थिते रविसुते वृषभे च जीवे,राजोत्तरेषु सितपक्षमुपेत्य चन्द्र / प्रामे च पाटलिकनामनि पाणराष्ट्र,शास्त्रं पुरा लिखितवान्मुनिसर्वनन्दी॥३ संवत्सरे तु द्वाविंशे काञ्चोश सिंहवर्मणः / अशीत्यप्रेशकाब्दानां सिद्धमेतच्छतत्रये // 4 // तिलोगपण्णतोकी उक्त दोनों गाथानों में जिन विशेष वर्णनोंका उल्लेख 'लोकविभाग' प्रादि ग्रन्थोंके भावारपर किया गया है वे सब संस्कृत लोकविभागमें भी पाये जाते है / और इससे यह बात और भी स्पष्ट हो जाती है कि संस्कृत. का उपलब्ध लोकविभाग उक्त प्राकृत लोकविभागको सामने रखकर ही लिखा गया है। इस सम्बन्धमें एक बात और भी प्रकट कर देने की है और वह यह कि संस्कृत लोकविभागके अन्तमें उक्त दोनों पद्योंके बाद एक पद्य निम्न प्रकार दिया है पंचदशशतान्याहुः षटत्रिंशदाधिकानि वै। शास्त्रस्य संग्रहस्त्वेदं छंदसानुष्टुभेन च / / 5 / / . इसमें ग्रन्यकी संख्या 1536 श्लोक-परिमारण बतलाई है, जबकि उपलब्ध प्रेमीने ( 'जेन साहित्य पोर इतिहास पृ० 5 पर ) नामके अधूरेपनकी कल्पना की है और 'पूरा नाम शायद मिहनन्दि हो" ऐमा सुझाया है। छंरकी कठिनाईका हेतु कुछ भी ममी चीन मालूम नहीं होता; क्योंकि सिंहनन्दि और सिहसेन जैसे नामोंका वहाँ सहज ही समावेश किया जा सकता था। * "प्राचार्यवलिकागतं विरचितं तत्मिहमूरपिरणा। भाषायाः परिवर्तनेन निपुणः सम्मानितं साधुभिः / / " +"दर्शवैष सहस्राणि मूलोऽपि पथुर्मतः।" -प्रकरण 2 "अन्त्यकायप्रमाणात किञ्चित्संकुचितात्मकाः ॥"-प्रकरण 11 देखो, पाराके जैनसिद्धान्तभवनकी प्रति मोर उसारसे उतारी हुई वीरसेवामन्दिरकी प्रति /