________________ सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन जाते है / जैसे “साध्याविनामुवो हेतो:" जैसे वाक्यमें हेतुका लक्षण प्राजानेपर भी "प्रन्ययानुपपन्नत्वं हेतोलंक्षणमीरितम्" इस वाक्यमें उन पात्रस्वामीके हेतुलक्षणको उद्धृत किया गया है जो समन्तभद्रके देवागमसे प्रभावित होकर जैनधर्म में दीक्षित हुए थे। इसी तरह "दृष्टेष्टाव्याहताद्वाक्यात्" इत्यादि माठवें पद्यमें शब्द (मागम) प्रमाणका लक्षण माजाने पर भी अगले पद्यमे ममन्तभद्रका "पासोप्रशमनुल्लंघ्यमदृष्टेष्टविरोधकम्” इत्यादि शास्त्रका लक्षण समर्थनादिके रूपमें उदधृत हुआ समझना चाहिए। इसके सिवाय, न्यायावतार पर समन्तभद्रके देवागम (प्राप्तमीमांसा) का भी स्पष्ट प्रभाव है; जैसा कि दोनों ग्रन्यों में प्रमाणके अनन्तर पाये जानेवाले निम्न वाक्योंकी तुलनापरसे जाना जाता है "उपेक्षा फलमाऽऽद्यस्य शेपस्याऽऽदान-हान-धीः / पूर्वा() वाऽज्ञान-नाशो या सर्वम्याऽभ्य म्वगोचरे / / 102 / / " - देवागम "प्रमाणम्य फलं माक्षादज्ञान-विनिवर्तनम् / केवलस्य सुखोपेक्षे शेषस्याऽऽदान-हानधी: // 2 // " -न्यायावतार ऐसी स्थितिम व्याकरणादिके कर्ता पूज्यपाद और न्यायवतारके कर्ता सिद्ध मन दोनों ही स्वामी समन्तभद्रकं उत्तरवर्ती है, इसमें सन्देहके लिये कोई स्थान नहीं है / सन्मतिसूत्रके कर्ता सिद्धसेन चोरि नियुक्तिकार एवं नैमित्तिक भद्रबाहु के बाद हुए हैं-उन्होंने भद्रबाहुके द्वारा पुरस्कृत उपयोग-क्रमवादका खंडन किया है-प्रौर इन भद्रबाहुका समय विक्रमकी छठी शताब्दीका प्रायः तृतीय चरण पाया जाता है, इमीसे यही समय सन्मनिकार सिद्धसेनके समयको पूर्वसीमा है, जैसा कि ऊपर सिद्ध किया जा चुका है। पूज्यपाद इम समयसे पहले गंगवंशी राजा अविनीत ( ई० सन् 430-482 ) तथा उसके उत्तराधिकारी दुविनीतके . यहाँ 'उपेक्षा के साथ सुखकी वृद्धि की गई है,जिमका अज्ञाननिवृत्ति तथा उपेक्षा (रागादिककी निवृत्तिरूप अनासक्ति )के साप प्रविनाभावी सम्बन्ध है /