________________ 558. जनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश एकको उस ग्रंथकारके पूर्ववर्ती और दूसरेको उत्तरवर्ती बतलाया जाय और वह भी विना किसी युक्तिके / इसमें सन्देह नहीं कि पण्डित सुखलालजीकी बहत पहलेसे यह धारणा बनी हुई है कि सिद्ध सेन समन्नभद्रके पूर्ववर्ती है और वे जैसे तैसे उसे प्रकट करनेके लिये कोई भी मवसर चूकते नहीं हैं। हो सकता है कि उसीकी धुनमें उनसे यह कार्य बन गया हो, जो उस प्रकटीकरणका ही एक प्रकार है; अन्यथा वैसा कहने के लिए कोई भी युक्तियुक्त कारण नहीं है / पूज्यपाद समन्तभद्रके पूर्ववर्ती नहीं किन्तु उत्तरवर्ती है, यह बात जैनेन्द्रव्याकरण के उक्त "चतुष्टयं समन्तभद्रस्य" सूत्रसे ही नहीं किन्तु श्रवणबेल्गोलके शिखालेखों प्रादिसे भी भले प्रकार जानी जाती है।। पूज्यपादकी 'सर्वार्थसिद्धि' पर समन्तभद्रका स्पष्ट प्रभाव है, इसे 'सर्वार्थ सिद्धि पर समन्तभद्रका प्रभाव' नामक लेखमें स्पष्ट करके बतलाया जो चुका है / समन्तभद्रके 'रत्नकरण्ड' का 'पासोपज्ञमनुल्लंध्यम्' नामका शास्त्रलक्षणवाला पूरा पद्य न्यायावतारमें उद्धृत है, जिसकी रत्नकरण्ड में स्वाभाविकी और न्यायावतारमें उद्धरण-जैसी स्थितिको खूब खोलकर अनेक युक्तियोंके साथ अन्यत्र दर्शाया जा चुका है - उमके प्रक्षिप्त होनेकी कल्पना-जैसी बात भी अब नहीं रही: क्योंकि एक तो न्यायावतारका समय अधिक दूरका न रह कर टीकाकार सिद्धषिके निकट पहुँच गया है, दूसरे उसमें अन्य कुछ वाक्य भी समर्थनादिके रूपमें उद्धृत पाये +देखो, श्रवणबेलगोल-शिलालेख नं. 40(64); 108 (258); 'स्वामी समन्तभद्र' (इतिहास) पृ० 141-143; तथा 'जैनजगत' वर्ष 6 अङ्क 15-16 मे प्रकाशित 'समन्तभद्रका समय और डा० के० बी० पाठक' शीर्षक लेख पृ० 18.23 अथवा 'दि एनल्स प्रा. दि भाण्डारकर रिसर्च इन्स्टिटघट पूना वोल्यूम 15 पार्ट 1-2 में प्रकाशित Samantabhadra's date and Dr. K. B Pathak पृ० 81-88 / देखो, भनेकन्त वर्ष 5, किरण 10.11 पृ० 346-352 / (r) देखो, स्वामी समन्तभद्र' (इतिहास) पृ० 126-131 तथा अनेकान्त वर्ष 6, कि० १से ४में प्रकाशित 'रत्नकरण्डके कर्तृत्वविषयमें मेरा विचार और निर्णय' नामक लेख पृ० 5-140 /