________________ सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन सम्न न होना प० सुखलालजीको कुछ प्रखरा है; परन्तु इसमें प्रखरनेकी कोई बात नहीं है / जब इन प्राचार्योंके सामने ये दोनों वाद पाए ही नहीं तब वे इन वादों का ऊहापोह अथवा खण्डनादिक कैसे कर सकते थे ? प्रकलङ्कके सामने जब ये वाद पाए तब उन्होंने उनका खण्डन किया ही हैं; चुनांचे 50 सुखलालजी स्वयं ज्ञानबिन्दुके परिचय में यह स्वीकार करते है कि "ऐसा खण्डन हम सबसे पहले प्रकलङ्ककी कृतियों में पाते हैं।" और इसलिये उनसे पूर्वकी-कुन्दकुन्द, समनभद्र तथा पूज्यपादकी-कृतियोंमें उन वादोंकी कोई चर्चाका न होना इस गतको और भी साफ तौरपर भूचित करता है कि इन दोनों वादोंकी प्रादुर्भूति उनके समय के बाद हुई है। सिद्धसेनके सामने ये दोनों वाद थे-दोनोंकी चर्चा . सन्मतिमें की गई है-अतः ये सिद्धसेन पूज्यपादके पूर्ववर्ती नहीं हो सकते। . पूज्यपादने जिन सिद्धसेनका अपने व्याकरणमें नामोल्लेख किया है वे कोई दूसरे ही सिद्धसेन होने चाहिये / यहाँपर एक खास बात नोट किये जाने के योग्य है और वह यह कि पं. सुखलाल जी मिद्धमेनको पूज्यपादसे पूर्ववर्ती सिद्ध करने के लिये पूज्यपादीय जनेन्द्र : व्याकरणका उक्त सूत्र तो उपस्थित करते है परन्तु उसी व्याकरणके दूसरे समकक्ष मूत्र "चतुष्टयं मन्मतभद्रस्य' को देखते हुए भी अनदेखा कर जाते हैंउसके प्रति गनिमीलन-जमा व्यवहार करते हैं-और ज्ञानबिन्दुकी परिचयात्मक प्रस्तावना (पृ० 55) मे विना किमी हेतुके ही यहाँ तक लिखनेका साहस करते है कि "पूज्यपादके उत्तरवर्ती दिगम्बराचार्य समन्तभद्र ने अमुक उल्लेख किया ! माथ ही, इस बातको भी भुला जाते हैं कि सन्मतिकी प्रस्तावनामें वे स्वयं पूज्यपदको समन्तभद्रका उत्तरवर्ती बतला प्राए हैं और यह लिख पाए है कि 'स्तुनिकाररूपमे प्रसिद्ध इन दोनों जैनाचार्योंका उल्लेख पूज्यपादने अपने व्याकरणाके उक्त सूत्रोंमें किया है उनका कोई भी प्रकार का प्रभाव पूज्यपादकी कृतियोंपर होना चाहिये / ' मालूम नहीं फिर उनके इस माहसिक कृत्यका क्या रहस्य है ! और किस अभिनिवेशके वशवी होकर उन्होने अब यों ही चलती कलमसे समन्तभद्रको पूज्यपादके उत्तरवर्ती कह डाला है !! इसे अथवा इसके मौचित्यको वे ही स्वय समझ सकते हैं। दूसरे विद्वान् तो इसमें कोई प्रौचित्य एवं न्याय नहीं देखते कि एक ही व्याकरण ग्रंथमें उल्लेखित दो विद्वानोंमेसे