________________ 556 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश सिद्धसेनाचार्यके द्वारा हुमा है / परन्तु यह ठीक नही है क्योंकि प्रथम तो युगपत्वादका प्रतिवाद भद्रबाहकी आवश्यक नियुक्तिके "सव्वस्स केवलिस्स वि जुगवं दो रणस्थि उवमोगा" इस वाक्यमें पाया जाता है जो भद्रबाहुको दूसरी शताब्दीका विद्वान् माननेके कारण उमास्वातिके पूर्वका ठहरता है और इसलिये उनके विरुद्ध जाता है। दूसरे, श्रीकुन्दकुन्दाचार्य के नियमसार-जैसे ग्रंथों और भाचार्य भूतबलिके षट्खण्डागम में भी युगपत्वादका स्पष्ट विधान पाया जाता है / ये दोनों प्राचार्य उमास्वातिके पूर्ववर्ती है और इनके युगपद्वाद-विधायक वाक्य नमूने के तौरपर इस प्रकार हैं: 'जुगवं वइ णाणं केवलणाणिस्स दसणं च तहा। दिणयर-पयास-तावं जह कट्टइ तह मुणेयव्वं // " (णियम० 156) / "सयं भयवं उप्पण्ण-णाण-दरिमी मदेवाऽसुर-माणुसस्स लोगस्स श्रागदि गदि चयणोववादं बन्धं मोक्वं इद्धि ठिदि जुदि अणुभागं तक कलं मणोमाणसियं भुत्तं कदं पडिमविदं श्रादिकम्म अरहकम्म सव्यलोए सव्यजीवे सव्वभावे सव्वं समं जाणदि पस्सदि विहरदित्ति।"-( षट्वएडा० 4 पयडि श्र० सू० 78 ) / ऐसी हालतमे युगपत्वादकी सर्वप्रमम उत्पत्ति उमास्वातिमे बतलाना किसी तरह भी युक्तियुक्त नहीं कहा जा सकता, जैनवाङ मयमें इसकी पविकल धारा अतिप्राचीन कालमे चली आई है / यह दूसरी बात है कि क्रम तथा प्रभेदकी धाराएं भी उसमें कुछ बादको शामिल हो गई है। परन्तु विकास-क्रम युगपत्वादसे ही प्रारम्भ होता है, जिसकी सूचना विशेषणवतीको उक्त गाथाप्रो ('कई भगांति जुगवं' इत्यादि ) में भी मिलती है। दिगम्बराचार्य श्री कुन्दकुन्द, समन्नभद्र और पूज्यपादके ग्रन्थोंमें क्रमवाद तया प्रभेदवादका कोई ऊहापोह अथवा ॐ उमास्वातिवाचकको 50 सुखलालजीने तीसरीमे पांचवीं शताब्दीके मध्यका विद्वान् बतलाया है / (शा० वि० परि पृ० 54) / $ इस पूर्ववर्तित्वका उल्लेख श्रवणबेलगोलादिके शिलालेखों तथा अनेक ग्रंथप्रशस्तियोंमें पाया जाता है।