________________ ........ सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन नन्दीमे पहले अथवा विक्रमकी ५वीं शताब्दीमें हुए हैं। इसको सिद्ध करनेके लिये पहले यह सिद्ध करना होगा कि सन्मतिमूत्र और तीसरी तथा नवमी द्वात्रिशिकाएं तीनों एक ही मिद्ध मेनकी कृतियां हैं। और यह सिद्ध नहीं है / पूज्यपादसे पहले उपयोगद्वयके क्रमवाद तथा प्रभेदवादके कोई पुरस्कर्ता नहीं हुए हैं, होते तो पूज्यपाद अपनी सर्वार्थ सिद्धि में सनातनसे चले आये युगपद्वादका प्रतिपादनमात्र करके ही न रह जाते, बल्कि उसके विरोधी वाद अथवा वादोंका खण्डन ज़रूर करते / परन्तु ऐसा नहीं है , , और इससे यह मालूम होता है कि पूज्यपादके समय में केवलीके उपयोग-विषयक क्रमवाद तथा अभेदवाद प्रचलित नहीं हुए थे-वे उनके बाद ही सविशेषरूपसे घोषित तथा प्रचारको प्राप्त हुए हैं, और इमीसे पूज्यपादके बाद प्रकलङ्कादिकके साहित्य में उनका उल्लेख तथा खण्डन पाया जाता है / क्रमवादका प्रस्थापन नियुक्तिकार भद्रबाहुके द्वारा और अभेदवादका प्रस्थापन सन्मतिकार सिद्ध सेनके द्वारा हुआ है / उन वादोंके इस विकासक्रमका समर्थन जिनभद्रके विशेषणवती ग्रंथकी उन दो गाथाओं ( 'केई भरणंनि जुगवं' इत्यादि नम्बर 184, 185) से भी होता है जिनमें युगपत्. क्रम पौर प्रभेद इन तीनों वादोंके पुरस्कर्तामोंका इसी क्रमसे उल्लेख किया गया है और जिन्हें ऊपर ( नं० २में ) उद्धृत किया जा चुका है। पं० मुखलालजीने नियुक्तिकार भद्रबाहुको प्रथम भद्रबाहु और उनका समय विक्रमकी दूसरी शताब्दी मान लिया है x, इसीसे इन वादोंके क्रम-विकासको समझने में उन्हें भ्रानि हुई है / और वे यह प्रतिपादन करने में प्रवृत्त हुए हैं कि पहले करवाद था, युगपत्वाद बादको सबसे पहले वाचक उमास्वाति-द्वारा जैन वाङमयमें प्रविष्ट हुप्रा और फिर उसके बाद अभेदवादका प्रवेश मुख्यत: "स उपयोगो द्विविधः / ज्ञानोपयोगी दर्शनोपयोगश्चेति ।....."माकारं जानमनाकारं दर्शन मिति / नच्छद्मस्थेषु क्रमेण वर्तते / निरावरणेषु युगपत् / ' x ज्ञानबिन्दु-परिचय पृ०५ पादटिप्पण। "मतिज्ञानादिचतुषु पर्यायेणोपयोगो भवति, न युगपत् / मंभिन्नज्ञानदर्शनस्य तु भगवतः केवलिनो युगपत्सर्वभावग्राहके निरपेक्षे केवलज्ञाने केवलदर्शने चानुसमयमुपयोगो भवति / " -तत्त्वार्थभाष्य 1-31 /