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________________ जैनसाहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश भी प्रभाचन्द्राचार्यने इस रत्नकरण्डको स्वामी समन्तभद्रकी कृति सूचित किया है । यह प्रस्तावना - वाक्य और नमूनेके तौर एक रुन्धिवाक्य इस प्रकार है "श्रीसमन्तभद्रस्वामी रत्नानां रक्षणोपाय भूत रत्न कर एडकारूयं सम्यग्दर्शनादिरत्नानां पालनोपायभूतं रत्नकरण्डकाख्यं शास्त्रं कर्तुकामो निर्विघ्नत: शास्त्रपरिसमाप्यादिकं फलमभिलपन्निदेवताविशेषं नमस्कुर्वन्नाह - " " इति प्रभाचन्द्रविरचितायां समन्तभद्रस्वामिविरचितोपासकाध्ययनटीकायां प्रथमः परिच्छेदः ||१|| " प्रेमीजीने अपने 'जैनसाहित्य और इतिहास' नामक ग्रन्थ ( पृ० ३३६ ) में कुछ लेखोंके प्राधारपर यह स्वीकार किया है कि प्रभाचन्द्राचार्य धाराके परमारवंशी राजा भोजदेव और उनक उनगधिकारी जर्यासह नरेशके राज्यकालमें हुए हैं और उनका 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' भोजदेवके राज्यकालको रचना है । जब कि वादिराजसूरिका पार्श्वनाथचग्नि शमवत् ६८३ (वि० सं० १००२) में बनकर समाप्त हुआ है। इससे प्रभाचन्द्राचार्य वादिराजवं प्राय: समकालीन जान पड़ते हैं । और जब प्रेमीजीकी मान्यतानुसार उन्होने रत्नकरण्डकी वह टीका लिखी है जिसमें माफ तौर पर रत्नकरण्डको स्वामी मनभद्रको कृति प्रतिपादित किया गया है तब प्रेमीजीके लिये यह कल्पना करनेकी कोई माकूल वजह नहीं रहती कि वादिराजसूरि देवागम और रत्नकरणको दो नग प्रनय प्राचार्योंकी कृति मानने थे और उनके समक्ष वैमा माननेका कोई प्रमगा या जनश्रुति रही होगी । यहाँ पर मुझे यह देखकर बड़ा प्राश्वर्य होता है कि प्रेमीजीने वादिराजके स्पष्ट निर्देशके बिना ही देवागम और रत्नकरटको भिन्न भिन्न कर्तृ मानकर यह कल्पना तो कर डाली कि वादिराजके सामने दोनो ग्रन्थोंके भिनवलका कोई प्रमाण या जनश्रुति रही होगी, उनके were are afevere नहीं किया जा सकता; परन्तु १३वी शतके प्राचार्य १८ पाशायर जैसे महान् विद्वान्ने जब अपने 'धर्मामृत' ग्रन्थ में जगह जगह पर रस्नकरण्डको स्वामी समन्तभद्र की कृति और एक धागम ग्रन्थ प्रतिपादित किया है तब उसके सम्बन्ध में यह कल्पना नहीं की कि पं० प्राशावरजीके सामने भी वैसा प्रतिपादन करने
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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