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स्वामी समन्तभद्र धर्मशास्त्री, तार्किक और योगी तीनों थे २४६
का कोई प्रबल प्रमाण अथवा जनश्रुतिका प्राधार रहा होगा !! क्या प्राशावरजी को एकाएक प्रविश्वासका पात्र समझ लिया गया, जो उनके कथनकी जांचके लिये तो पूर्व परम्पराकी खोजको प्रोलेजन दिया गया परन्तु वादिराजके तथाafed serni afeके लिए कोई संकेत तक भी नहीं किया गया ? नहीं मालूम इसमें क्या कुछ रहस्य है ? प्राशावरजी के सामने तो बहुत बड़ी परम्परा प्राचार्य प्रभाचन्द्र की रही है, जो अपनी टीका द्वारा रत्नकरण्डको स्वामी समन्तभद्रका प्रतिपादित करने थे और जिनके वाच्यको प्रागाधरजीने अपने धर्मामृत की टीका श्रद्धा साथ उद्धृत किया है और जिनके उद्धरणका एक नमूना इस प्रकार है
"यथास्तत्र भगवन्नः श्रीमत्प्रभेदेवपादा रत्नकरण्ड-टीकायां 'चतुरात्रि' इत्यादि सूत्र 'द्विनिपण' इत्यस्य व्याख्याने 'देववन्दनां कुर्वता र समानौ वापविश्य प्राणामः कर्तव्यः" इति ।
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- पनगारधर्मामृन प० न० ६३ की टीका शारजीके पहले १२वी शताब्दी श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव भी होगये है. जो की स्वामी समन्तभद्रकी कृति मानते थे, इसमें नियममारकी टीका उन्होने तथा चोक श्रीममन्नमद्रस्यामिभिः इस वाक्य के साथ रत्नeroent अन्नरक्त" नामका पद्य उद्धृत किया है।
इस तरह प० प्राशाभरजीने पूर्वको १२वा पौर eiferaसूरके समय तक रत्नकरण्डके स्वामी का पता चलता है। खोजने पर और भी प्रमाण मिल
russafrasा पता तो उसके वाक्योंके उद्धरणों तथा अनुमरणोके द्वारा विक्रमकी छठी ( ईमाको ५वी)
नाब्दी तक पाया जाता है . और उदाहरण के तौरपर रत्नकरण्डका 'प्राप्तोपमनुस्य पद्य न्यायावतार में उद्धृत मिलता है. जो ई० की वी शताब्दिकी रचना प्रमाणित हुई है । और reserves fear ही पदवाक्योंका अनुसरण 'सर्वार्थसिद्धि' ( ई० की ५वीं शताब्दि ) में पाया जाता है और जिनका स्पष्टीकरण 'सर्वार्थसिद्धिपर ममन्नभद्रका प्रभाव' नामक लेखमें किया जा चुका है ( देखो, अनेकान्न वर्ष ५ कि० १०-११ )
११वी शताब्दीमे भी,
न होनेकी मान्यतासकते है । और वैसे