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२५० जनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश इसलिये उसके बाद के किसी विद्वान द्वारा उसके कर्तृत्वकी कल्पना नहीं की जा सकती।
यहाँ पर पाठकोंको इतना और भी जान लेना चाहिये कि आजमे कोई २० वर्ष पहले मैंने 'स्वामी समन्तभद्र' नामका एक इतिहास ग्रन्थ लिखा था, जो प्रेमीजीको समर्पित किया गया था और माणिकचन्द्र-जैनग्रथमालामे रल. करण्ड-श्रावकाचारकी प्रस्तावनाके साथ भी प्रकाशित हुआ था। उसमे पाश्वनाथचरितके उक्त 'स्वामिनश्चरितं' और 'त्यागी स एव योगीन्द्र। इन दोनों पद्योको एक साथ रखकर मैने बतलाया था कि इनमे वादिर जमूरिने स्वामी समन्तभद्रकी स्तुति उनके 'देवागम' और 'र नकरारक'नामक दो प्रवचनों ( ग्रन्थों ) के उल्लख पूर्वक की है। माथ ही, क फुटनोट-दाग यह मचन किया था कि इन दोनो पद्योंके मध्यमें 'अचिन्त्यमहिमा देयः माऽभिवन्दया हितैषिणा । शब्दाच येन मिद्धयन्ति साधुत्वं प्रतिलम्भिना:" यह पद्य प्रकाशित प्रनिमे पाया जाता है, जो मेरी गयमे भक्त दानो पोक वादका मालूम होता है और जिमका 'देव:' पद मभवत: देवनन्दी । पूजापान ) का वाचक जान पड़ता है। और लिखा था कि "यदि यह वीमग पद्य मचमुच ही ग्रन्थकी प्राचीन प्रतियोंमें इन दोनों पद्योके मध्यमे ही पाया जाना है और मध्यका ही पद्य है तो यह कहना होगा कि वादिगजने ममन्नभद्रको अपना हिन चाहने वालोंके द्वारा बन्दनीय और अचिन्यमहिमा वाला देय भी प्रतिपादन किया है। साथ ही यह लिखकर कि उनके द्वारा शब्द भये प्रकार सिद्ध होते हैं, उनके ( समन्तभद्र के ) किमी व्याकरण ग्रंथका उल्लम्ब किया है ।" इस मूनना और सम्मतिके अनुमार विद्वान् लोग बगबर यह मानते प्रा रहर कि त्यागी स एव योगीन्द्रो येनाक्षय्यमवावहः । अधिन भव्य दिया रम्नकरण्डक' इम पथके द्वारा वादिगजमुग्नेि पूर्वके 'स्वामिनश्चग्नि' पामें उल्लिखित स्वामी समन्तभद्रको ही रत्नकरण्डका कर्ता मूचित किया है, नुनांचे प्रोफसर हीरालालजी एम०ए० भी सन् १६४२ में पटवण्डागमकी चोयी जिन्दकी प्रस्ताबना लिखते हुए उमके १२ वं पृष्ठपर लिखते है
'श्रावकाचारका सबसे प्रधान, प्राचीन, उत्तम और सुप्रसिद्ध ग्रन्थ म्वामी समन्तभद्रकृत रत्नकरण्ड-श्रावकाचार है, जिसे वादिराजग्नेि 'प्रक्षय्यमुखावह'