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स्वामी समन्तभद्र धर्मशास्त्री, तार्किक और योगी तीनों थे २५१
और प्रभाचन्द्रने 'अखिल सागारमार्गको प्रकाशित करनेवाला सूर्य' लिखा हैं"
मेरे उक्त फुटनोटको लक्ष्यमें रखते हुए प्रेमीजी अपने लेखमें लिखते है'यदि यह कल्पना की जाय वि. पहले श्लोकके बाद ही तीसरा लोक होगा, बीचका इलोक गलतीसे तीसरेकी जगह अप गया होगा - यद्यपि इसके लिये हस्तलिखित प्रतियोंका कोई प्रमाण अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ है तो भी, दोनोको एक साथ रखनेपर भी, स्वामी और योगीन्द्रको एक नहीं किया जासकता और न उनका सम्बन्ध ही ठीक बैठता है । परन्तु सम्वन्ध क्योकर ठीक नहीं वैटता और स्वामी तथा योगीन्द्रको एक कंस नहीं किया जा सकता ? इसका कोई स्पष्टीकरण आपने नहीं किया । मात्र यह कह देनसे काम नहीं चल सकता कि तीनो एक एक ग्राचार्यकी स्वतन्त्र प्रशस्ति हैं" । क्योंकि यह बात तो
it farara हो है कि तीनो एक एक श्राचार्यकी प्रमस्ति है या दोकी अथवा नीनकी । वादिराजमृति तो कही यह लिखा नहीं कि "हमने १५ लोकों में पूर्व १५ ही प्राचार्योंका या कवियोका स्मरण किया है और न दूसरे ही किसी प्राचार्य ऐसी कोई सूचना की है। इसके सिवाय समन्तभद्रके साथ 'देव' उपपद भी जुड़ा हुआ गाया जाता है, जिसका एक उदाहरण देवागमकी वसुनन्दिवृत्तिके ग्रन्त्यमगलका निम्न पद्य है
समन्तभद्रदेवाय परमार्थविकल्पिते ।
समन्तभद्रदेवाय नमोऽस्तु परमात्मने ॥ १ ॥
और इस लिये उक्त मध्यवर्ती श्लोक भाए हुए 'देव' पदके वाच्य समन्तभद्र भी हो सकते है. जैसा कि उपर्यु' लिखित फुटनोट में कहा गया है, उसमें कोई बाधा नही मानी ।
इसी तरह यह कह देन भी काम नहीं चलता कि - "तीनो लोक अलगअलग अपने आपमें परिपूर्ण है, ने एक दूसरेकी प्रपेक्षा नही रखते।" क्योकि अपने ग्रामे परिपूर्ण होते और एक मरेकी अपेक्षा न रखते हुए भी क्या ऐसे एक अधिक लोकों द्वारा किसीकी स्तुति नही की जा सकती ? जरूर की जा सकती है। और इसका एक सुन्दर उदाहरण भगवज्जिनसेन द्वारा समन्तभद्रकी ही स्तुनिके निम्न दो श्लोक है, जो अलग-अलग अपने में परिपूर्ण हैं, एक दूसरेकी अपेक्षा नहीं रखते और एक साथ भी दिये हुए है-