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जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश
नमः समन्तभद्राय महते कविवेधसे । यद्वचो वज्रपातेन निर्भिन्नाः कुमताद्रयः ॥ ४३ ॥ कवीनां गमकानां च वादीनां वाग्मिनामपि । यशः सामन्तभद्रीय मूर्ध्नि चूड़ामणीयते ॥ ४४ ॥ - प्रादिपुराण, प्रथम पर्व
यहां पर यह बात भी नोट कर लेने की है कि भगवजिनसेनने 'प्रवादिकरियूथानां' इस पद्यसे पूर्वाचार्योकी स्तुतिका प्रारम्भ करते हुए, समन्तभद्र र अपने गुरु वीरसेनके लिये तो दो दो पद्योंमें स्तुति की है. शेषमेसे किसी भी Marinी स्तुति के लिये एकसे अधिक पचका प्रयोग नही किया है। और इस लिये यह स्तुतिकर्ताकी इच्छा और रुचिपर निर्भर है कि वह सबकी एक-एक पद्य स्तुति करता हुआ भी किमीकी दो या तीन पद्यमे भी स्तुति कर मकता है - उसके ऐसा करनेमें बाधाकी कोई बात नहीं है। और इसलिये प्रेमीजीका अपने उक्त तर्कपरसे यह नतीजा निकालना कि तब उक्त दो लोकोमे एक ही समन्तभद्रकी स्तुति की होगी, यह नही हो सकता." कुछ भी युक्ति-संगत मालूम नहीं होता ।
हाँ, एक बात लेखके अन्नमं प्रेमीजीने और भी कही है। सभव है नही उनका अन्तिम तर्क और उनकी आशंकाका मूलाधार हो, वह वान इस प्रकार है
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"देवागमादिके कर्त्ता और रत्नकरण्डके कर्ना अपनी रचनाशैली प्रर विषयकी दृष्टि से भी एक नही मालूम होते । एक तो महान् तार्किक है और दूसरे धर्मशास्त्री | जिनमेन यादि प्राचीन प्राचार्यनि उन्हें वादी, वाग्मी और तार्किक के रूपमें ही उल्लेखित किया है, धर्मशास्त्रीके रूपमे नहीं। योगीन्द्र जैसा विशेषण तो उन्हें कही भी नहीं दिया गया ।"
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इसमे मालूम होता है कि प्रमोजी स्वामी समन्तभद्रको 'तार्किक' मानते हैं। परन्तु 'धर्मशास्त्री' और 'योगी' माननमे सन्दिग्ध है, और अपने इस सन्दहके कारण स्वामीजीके द्वारा किमी धर्मशास्त्रका रचा जाना तथा पार्श्वनाथ चरितके उस तीसरे इलोकमें 'योगीन्द्र' पदके द्वारा स्वामीजीका उल्लेख किया जाना उन्हें कुछ संगत मालूम नहीं होता, और इसलिये वे शंका शील बने हुए है। ऐसा