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________________ स्वामी समन्तभद्र धर्मशास्त्री, तार्किक और योगी तीनों थे २५३ नहीं कि वे एक तार्किकका धर्मशास्त्री तथा योगी होना पसंभव समझते हों, बल्कि इस विषयमें उनकी दूसरी दलील है और वह केवल इतनी ही है कि-किसी प्राचीन प्राचार्यने स्वामी समन्तभद्रको धर्मशास्त्रीके रूपमें उल्लेखित नहीं किया और योगीन्द्र जैसा विशेषण तो उन्हें कहीं भी नहीं दिया गया।' परन्तु यह दलील ठीक नहीं है; क्योंकि श्रीजिनमेनाचार्यमे भी प्राचीन प्राचार्य प्रकलंकदेवने देवागम-भाष्यके मंगलपद्यमें येनाचार्यसमन्तभद्र -यतिना तस्मै नमः संततं' इस वाक्यके द्वाग समन्तभद्रको प्राचार्य' और 'यति' दोनों विशेषगोंक साथ उल्लेखिन किया है जिममें 'प्राचार्य' विशेषगण 'धर्माचार्य' अथवा 'प्राचार्यपरमेष्ठि' का वाचक है, जो दर्शन. प्रान, चारित्र नप और वीर्यरूप पवाचार धर्मका स्वय प्राचरण करते और दमरोंको प्राचरण करते है। और इसलिये यह प्राचार्यपद धर्मशास्त्री' में भी बड़ा है-धर्मनास्त्रित्व इसके भीतर मंनिहित अथवा समाविष्ट है। स्वयं समन्तभदने भी अपने एक परिचय-पद्या में, अपने को पानायं मूचित किया है। मग यान' विभेगमा मन्मागमें यनगील योगीका वाचक है। श्री विद्यानन्दानायंने अपनी प्रमहनीमें स्वामी ममन्तभद्रको 'यतिभृत' और 'यनीग' + नमः लिम्बा है जो दोनो ही योगिगन प्रथम 'यागीन्द्र' अर्थक द्योतक है। कवि हम्निमल्ल पोर प्रयपायने विक्रान्नकोरवारिक ग्रन्याम समन्तभद्रको 'पद्धिकचारण ऋदि का धारक --लिखा है, जो उनके महान् योगी होनेका सूचक है । प्रोर कवि दामादरनं प्रपन 'चन्द्रप्रभग्निमें माफतौरपर 'योगी' विशेषगका ही प्रयोग किया है। यथा • सरगणारणपहागणे धारियचरितवरतवापारे।। प्रपं पर च ज मो पार्यारमो मुरण, झयो ॥५६।। -द्रव्यसंग्रह देखो. अनेकान्तकी उस पिछली किरणमें प्रकाशित 'समन्तभद्रका एक और परिचय-पद' गोषक मम्पादकीय लेख (अथवा इससे पूर्ववर्ती लेख)। + "स श्रीस्वामिसमन्तभद्रयतिमृद भूयाद्विभुर्भानुमान् ।' "स्वामी जीयास्व शश्वत्परतरयतीसोफलोस्कीतिः ।।"
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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