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२३८ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश ऐसी हालतमें जब कि 'राजावलिकथे' साफ़ तौर पर कांचीमें ही भस्मक-व्याधिकी शांति प्रादिका विधान करती है और सेनगणकी पट्टावलोसे भी उसका बहुत कुछ समर्थन होला है।
जहाँ तक मैंने इन दोनों कथानोंकी जाँच की है, मुझे 'राजावलिकथे' में दी हुई समन्तभद्रकी कथामें बहुत कुछ स्वाभाविकता मालूम होती है-मगुवकहल्ली ग्राममें तपश्चरण करते हुए भस्मक-व्याधिका उत्पन्न होना, उसकी निःप्रतीकारावस्थाको देखकर समन्तभद्र का गुस्से सल्लेखनावतकी प्रार्थना करना, गुरुका प्रार्थनाको अस्वीकार करते हुए मुनिवेष छोड़ने और रोगोपगान्तिके पश्चात् पुजिनदीक्षा धारण करनेकी प्रेरणा करना, 'भीमलिंग' नामक गिवालयका
और उसमें प्रतिदिन १२ खंडुग परिमारग तंडुलानके विनियोगका उल्लेख, शिवकोटि राजाको प्रागीर्वाद देकर उसके धर्मकृत्योंका पूछना, क्रमश: भोजनका अधिक अधिक बचना, उपमर्गका अनुभव होने ही उमकी निवृत्तिपर्यन ममस्त आहार...पानादिकका त्याग करके ममन्नभद्र का पहलेमे ही जिनस्तुति लीन होना, चन्द्रप्रभकी स्तुतिके बाद शेष तीर्थकगेकी स्तुति भी करते रहना, महावीर भगवान्की स्तुति की समाप्ति पर चरणों में पड़े हुए राजा और उनके छोटे भाईको पाशीर्वाद देकर उन्हें मद्धर्मका विस्तृत स्वरूप बतलाना, राजाके पुत्र 'श्रीकंठ' का नामोल्लेख, गजाके भाई "शिवायन का भी गजाके माथ दीक्षा लेना, और समन्तभद्रकी प्रोग्मे भीर्मालग नामक महादेवके विषयमें एक गन्द भी अविनय या अपमानका न कहा जाना, ये मय बातें, जो नेमिदत्तकी कथामें नहीं हैं. इस कथाकी स्वाभाविकताको बहुत कुछ वटा देती है। प्रत्युत इमके, नेमिदनकी कथामे कृत्रिमताकी बहुत कुछ गंध पाती है, जिमका कितना ही परिचय ऊपर दिया जा चुका है । इसके मिवाय, राजाका नमस्कारके लिये प्राग्रह, ममम्मभद्र का उनर, और अगले दिन नमस्कार करनेका वादा, इत्यादि बानें भी उसी कुछ ऐसी ही है ओ जीको नहीं लगती और प्रापनिके योग्य जान पड़ती है। नेमिदनकी इस कयापरमे ही कुछ विद्वानोंका यह बयान हा गया था कि इसमें जिनविम्बके प्रकट होनेकी जो बात कही गई है वह भी शायद कृत्रिम ही है
और वह 'प्रभावकचरित' में दी हुई 'मिद्धमेन दिवाकर' की कथामे, कुछ परिवर्तनके साथ, ले ली गई जान परनी है-उममें भी स्तुति पढ़ते हुए इसी तरह