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समन्तभद्र का मुनिजीवन और आपत्काल २३७ पौर न दशपुरमें रहते हुए उनके मृष्टमोजी होनेकी प्रतिज्ञाका ही कोई उल्लेख है । परन्तु इन्हें रहने दीजिये, सबसे बड़ी बात यह है कि उस पद्यमें ऐसा कोई भी उल्लेख नही है जिससे यह मालूम होता हो कि समंनभद्र उस समय भस्मक व्याघिसे युक्त थे अथवा भोजनकी यथेष्ट प्राप्तिके लिये ही उन्होंने वे वेष धारण किये थे । बहुत संभव है कि कांचीमें 'भस्मक' व्याधिकी शांतिके बाद समंतभद्रने कुछ अर्मे तक और भी पुजिनदीक्षा धारण करना उचित न समझा हो; बल्कि लगे हाथों शासनप्रचारके उद्देशमे, दूसरे धर्मोके आन्तरिक भेदको अच्छी तरहमे मालूम करनेके लिये उस तरह पर भ्रमण करना जरूरी अनुभव किया हो और उमी भ्रमगा का उक्त पद्यमें उल्लेख हो; अथवा यह भी होमकता है कि उक्त पद्य मे ममंतभद्रके निग्रंन्यमुनिजीवनमे पहलेकी कुछ घटनाओंका उल्लेख हो जिनका इतिहास नहीं मिलता और इमलिये गिन पर कोई विशेष राय कायम नहीं की जामकती। पद्यमें किमी क्रमिक भ्रमणका अथवा घटनाओंके क्रमिक होनेका उल्लेख भी नहीं है; कहां कांची और कहाँ उत्तर वंगालका पुण्डनगर ! पुण्ड़ने वागगामी निकट, वहां न जाकर उज्जनके पाम 'दयपुर' जाना और फिर वापिम वागणमी पाना, ये वाने क्रमिक भ्रमणको भूचित नहीं करनी । मेरी गयमे पहली बात ही ज्यादा संभवनीय मालूम होती है। प्रस्तु, इन सब बातोंको ध्यान में रखते हए, ब्रह्म नेमिदनकी कथाके उस अंशपर सहमा विश्वास नहीं किया जा सकता जो कांचीमें बनारम तक भोजनके लिये भ्रमण करने और बनारसम भस्मक-व्याधिको शाति आदिमे सम्बन्ध रखता है, खासकर
__ कुछ जैन विद्वानोंने इस पद्यका अर्थ देते हुए 'मलमलिनतनुर्लाम्बुशे पाण्डुपिण्ड:' पदोंका कुछ भी अर्थ न देकर उसके स्थानमें 'शरीरमें रोग होनेसे ऐसा एक खंडवाक्य दिया है; जो ठीक नहीं है । इस पद्यमें एक स्थानपर 'पाण्डुपिण्डः' और दूसरे पर 'पाण्डुरागः' पद पाये हैं जो दोनों एक ही अर्थ के वाचक हैं और उनमे यह स्पष्ट है कि समन्तभद्रने जो वेष वाराणसीमें धारण किया है वही लाम्बुशमें भी धारण किया था। हर्षका विषय है कि उन लेखकोंमेंसे प्रधान लेखकने मेरे लिखनेपर अपनी उस भूलको स्वीकार किया है और उसे अपनी उस समयकी भूल माना है।