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जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश
धारण करने की बातका उल्लेख है । परन्तु दूसरा पद्य तो यहां पर कोरा अप्रासंगिक ही है - वह पद्य तो 'करहाटक' नगरके राजाकी सभा में कहा हुआ पद्य है उसमें, अपने पिछले वादस्थानोंका परिचय देते हुए, साफ़ लिखा भी है कि में अब उस करहाटक ( नगर ) को प्राप्त हुआ हूँ जो बहुभटोंसे युक्त है, विधाका उत्कट स्थान है और जनाकीर्ण है । ऐसी हालत में पाठक स्वयं समझ सकते हैं कि बनारस के राजाके प्रश्न के उत्तरमे समंतभद्र मे यह कहलाना कि, अब में इस करहाटक नगर में प्राया हूँ कितनी वे सिर-पैर की बात है, कितनी भारी भूल है और उससे कथामें कितनी कृत्रिमता या जाती है । जान पड़ता है ब्रह्मने मदन इन दोनों पुरातन पद्योंको किसी तरह कथा में संगृहीत करना चाहते थे और उस संग्रहकी धुन में उन्हें इन पद्योंके अर्थसम्बन्धका कुछ भी ख़याल नहीं रहा। यही वजह है कि वे कथामें उनको यथेष्ट स्थान पर देने अथवा उन्हें ठीक तौर पर संकलित करने में कृतकार्य नहीं हो सके । उनका इस प्रसंग पर, 'स्फुटं काव्यद्वयं चेति योगीन्द्रः तमुवाच स यह लिखकर उक्त पद्योंका उद्धृत करना कथाके गौरव और उसकी अकृत्रिमताको बहुत कुछ कम कर देना है । इन पद्योंमें वादकी घोषणा होनेसे ही ऐसा मालूम देता है कि ब्रह्म नेमिदनने, राजा में जैन धर्म की श्रद्धा उत्पन्न करानेसे पहले, समंतभद्रका एकान्तवादियों वाद कराया है; अन्यथा इतने बड़े चमत्कार के अवसर पर
उसकी कोई आवश्यकता नहीं थी । कांचीके बाद
भ्रमण भी
का वह पहले पद्यको लक्ष्य में रखकर ही कराया गया मालूम होता है। यद्यपि उसमे भी
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कुछ त्रुटियां है वहां पद्यानुसार कॉवीके बाद, लाबुशमे प्रिण्ड' रूपमे ( शरीरमें भस्म रमाए हुए ) रहनेका कोई
समनभद्र के पाण्डुउल्लेख ही नहीं है,
ॐ यह बतलाया गया है कि "कांची में में नग्नाटक ( दिगम्बर साधु ) हुआ, वहाँ मेरा शरीर मनसे मलिन था, लाम्बुशमें पाण्डुपिण्ड रूपका धारक ( भस्म रमाए जैवसाधु ) हुप्रा, पुण्ड्रोड्रमें बौद्ध भिक्षुक हुमा दशपुर नगरमें मृष्टभोजी परिव्राजक हुआ, और वाराणसी में शिवसमान उज्ज्वल पाण्डुर अंगका धारी में तपस्वी ( शैवसाधु ) हुआ है। हे राजन् में जैन निर्व्रन्यवादी हैं, जिस fharat शक्ति मुझसे वाद करनेकी हो वह सामने ग्राकर वाद करें ।"