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________________ समन्तभद्रका मुनिजीवन और श्रापत्काल २३५ गरिष्ट पदार्थोंका इतने अधिक ( पूर्ण शतकुभ जितने ) परिमारगमें नित्य सेवन करने पर भी भस्मकाग्निको शांत होने में छह महीने लग गये हों । जहाँ तक मैं समझता हूँ और मैने कुछ अनुभवी वैद्योंम भी इस विषय में परामर्श किया है, यह रोग भोजनकी इतनी अच्छी अनुकूल परिस्थिति में अधिक दिनों तक नहीं ठहर सकता, और न रोगकी ऐसी हालत में पैदलका इतना लम्बा सफ़र भी बन सकता है । इसलिये, 'राजावलिकथे' में जो पांच दिनकी बात लिखी हैं वह कुछ असंगत प्रतीत नहीं होती। तीसरे समंतभद्रके मुखमे उनके परिचयके जो दो काव्य कहलाये गये है वे बिल्कुल ही अप्रासंगिक जान पड़ते हैं। प्रथम तो राजाकी ओर उस अवसर पर वैसे प्रश्नका होना ही कुछ बेढंगा मालूम देता हैवह अवसर तो राजाका उनके चरणों पड़ जाने और क्षमा-प्रार्थना करनेका था -- दूसरे समन्तभद्र, नमस्कारके लिये ग्राग्रह किये जाने पर अपना इतना परिचय दे भी चुके थे कि वे 'शिवोपासक' नहीं है बल्कि जिनोपासक हैं फिर भी यदि विशेष परिचयके लिये वैसे प्रश्नका किया जाना उचित ही मान लिया जाय तो उसके उत्तर में समन्तभद्रकी श्रीरमें उनके पितृकुल और गुरुकुलंका परिचय दिये जानेकी, अथवा अधिक अधिक उनकी भस्मकव्याधिकी उत्पत्ति और उसकी शानिके लिये उनके उस प्रकार भ्रमणको कथाको भी बतला देनेकी जरूरत थी; परन्तु उक्त दोनों पद्योंमें यह सब कुछ भी नहीं है-न पितृकुल अथवा गुरुकुलका कोई परिचय है और न भस्मकव्याधिकी उत्पत्ति आदिका ही उसमें कोई खास जिक्र है -- दोनों में स्पष्टरूपये वादको घोषणा है; बल्कि दूसरे पद्य में तो, उन स्थानोंका नाम देते हुए जहां पहले वादकी भेरी बजाई थी, अपने इस भ्रमणका उद्देश्य भो 'वाद' ही बतलाया गया है। पाठक सोचें, क्या समंतभद्रके इस भ्रमणका उद्देश्य 'वाद' था ? क्या एक प्रतिष्ठित व्यक्तिद्वारा विनीतभावसे परिचयका प्रश्न पूछे जानेपर दूसरे व्यक्तिका उसके उत्तर में लड़ने -२ गडनेके लिये तय्यार होना श्रथवा वादकी घोषणा करना शिष्टता और सभ्यताका व्यवहार कहला सकता है ? और क्या समतभद्र-जैसे उत्तरकी कल्पना की जा सकती हैं ? कभी नहीं। पहले पद्यके चतुर्थ चरण में यदि वादकी घोषणा न होती तो वह पद्य इस अवसर पर उत्तरका एक अंग बनाया जा सकता था; क्योंकि उसमें अनेक स्थानों पर समन्तभद्रके अनेक वेष महान् पुरुषोंके द्वारा ऐसे
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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