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________________ रत्नकरण्डके कर्तृत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय 447 इसलिये वीतरागका अभिप्राय यहाँ उस प्रस्थ वीतरागी मुनिसे है जो रागद्वेपकी निवृत्तिरूप सम्यकचारित्रके अनुष्ठानमें तत्पर होता है-केवलीसे नहींऔर अपनी उस चारित्र-परिणति के द्वारा बन्धको प्राप्त नहीं होता। और विद्वान् का अभिप्राय उस सम्यग्दृष्टि अन्तरात्मा से है जो तत्त्वज्ञानके अभ्यास-द्वारा सन्तोष-सुखका अनुभव करता है और अपनी उस सम्यग्ज्ञान-परिगतिके निमित्तसे बन्धको प्राप्त नहीं होता। वह अन्तरात्मा मुनि भी हो सकता और गृहस्थ भी; परन्तु परमात्मस्वरूप सर्वज्ञ अथवा प्राप्त नहीं है। प्रतः इस कारिकामें जब केवली प्राप्त या सर्वज्ञका कोई उल्लेख न होकर दूसरे दो सचेतन प्राणियोंका उल्लेख है तब रत्नकरण्डके उक्त छठे पद्यके साथ इस कारिकाका सर्वथा विरोध कसे घटित किया जा सकता है ? नहीं किया जा सकता-खासकर उ म हालत में जबकि मोहादिकका प्रभाव और अनन्तज्ञानादिकका सद्भाव होनेमे केवली में दु खादिक्की वेदनाएँ वस्तुत: बननी ही नहीं और जिसका ऊपर कितना ही स्पष्टीकरण किया जा चुका है / मोहनीयादि कर्मोके अभावमें साता-असाता वेदनीय-जन्य सुख दुःख की स्थिति उस छायाके समान श्रौपचारिक होती है-वास्तविक नहीं-जो दूसरे प्रकाशके सामने पाने ही विलुप्त हो जाती है और अपना कार्य करने में समर्थ नहीं होती / और इमलिये प्रोफेसर साहबका यह लिखना कि "यथार्थत: वेदनीयकर्म अपनी फलदायिनी शक्ति में अन्य प्रघातिया कर्मोंके समान सर्वथा स्वतन्त्र है" समुचित नहीं है / वस्तुनः अघातिया क्या, कोई भी कर्म अप्रतिहतरूपसे अपनी स्थिति तथा अनुभागादिके अनुरूप फलदान कार्य करने में सर्वथा स्वतन्त्र नहींहै। किसी भी कर्मकलिये अनेक कारणों की जरूरत पड़ती है और अनेक निमित्तोंको पाकर अन्तरात्माके लिये 'विद्वान्' शब्दका प्रयोग प्राचार्य पूज्यपादने अपने समाधितन्त्रके 'त्यक्त्वारोप पुनर्विद्वान् प्राप्नोति परमं पदम्' इस वाक्यमें किया है और स्वामी समन्तभद्रने 'स्तुत्यानत्वा विद्वान् सततमभिपूज्यं नमिजिनम्' तथा 'स्वमसि बिदुषां मोक्षपदवी' इन स्वयम्भूस्तोत्रके वाक्योंद्वारा जिन विद्वानोंका उल्लेख किया है वे भी अन्तरात्मा ही हो सकते है / +भनेकान्त वर्ष 8, किरण 1, पृष्ठ 30.
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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