________________ 448 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश कों में संक्रमण-व्यतिक्रमणादि कार्य हुमा करता है, समयसे, पहले उनकी निजरा भी हो जाती है भोर तपश्चरणादिके बलपर उनकी शक्तिको बदला भी जा सकता है / अतः कोको सर्वथा स्वतन्त्र कहना एकान्त है / मिथ्यात्व है और मुक्तिका भी निरोधक है। यहां 'धवला' परसे एक उपयोगी शखा-समाधान उद्धृत किया जाना है, जिससे केवलीमें क्षुवा-तुषाके प्रमावका सकारण प्रदर्शन होनेके साथ साथ प्रोफेसर साहब की इस शङ्काका भी समाधान हो जाता है कि यदि केवलीके सुख-दुःखकी वेदना माननेपर उनके अनन्तसुख नहीं बन सकता तो फिर कर्म सिद्धान्तमें केवलीके माता और प्रसाता वेदनीय कर्मका उदय माना ही क्यों जाता ' पौर वह इस प्रकार है "सगसहाय-घादिकम्माभावेण हिस्सत्तिमायएण-प्रसादावेदणीयउद यादो भुक्त्वा-तिसाणमणुपत्तीए गिफलस्स परमाणुजरस समयं पडि परिसद(ड)तम्स कथमुदय-ववएसो ? ण, जीव-कम्म-विवेग मेनफलं दळूण उदयास फजत्तमभुवगमादो।' -वीरसेवामन्दिर प्रति पृ. 375, पारा प्रति प० 641 शा-अपने सहायक घातिया कोका पभाव होने के कारण नि:शक्तिको प्राप्त हुए प्रसानावेदनीयकमके उदयमे जा ( कंबलीमे) धुषा-तृषाको उत्पनि नहीं होती तब प्रतिममय नाशको प्राप्त होनेवाले (प्रसातादेनीयकमक) निष्फन परमाणु एका कैमे उदय कहा जाता है ? समाधान-यह शहर ठीक नहीं; क्योंकि जीव और कर्मका विवेक-मात्र फल देखकर उदयके फनपना माना गया है। ऐमी हालतमें प्रोफेसर साहसक वीतराग मयंजक दुबकी वेदनाके पीकार. को कर्मसिद्धान्तके अनुकूल भोर प्रस्वीकारको प्रतिकूल प्रथया प्रसंगत बतलाना किसी तरह भी युक्ति-संगत नहीं ठहर मकता और इम वरह सम्पसन्दर्भ अन्तर्गत उक्त १३वीं कारिकाकी इष्टिमे भी रत्नकरण उक्त छठे पयको विस्ट नहीं कहा जा सकता। . अनेकान्त वर्ष 8, किरण 2,10 86 / Aname.ruwnaraum a ar ate awaren