________________ रत्नकरण्डके कतत्व विषयपर मेरा विचार और निर्णय 446 समन्तभद्र के दूसरे ग्रन्थोंकी छानबीन अब देखना यह है कि क्या समन्तभद्रके दूसरे किसी अन्यमें ऐसी कोई बात पाई जाती है जिससे रत्नकरण्डके उक्त 'क्षुत्पिपासा' पचका विरोध घटित होता हो अथवा जो प्राप्त केवली या महत्परमेष्ठी में क्षुधादि दोषोंके सद्भावको मूचित करती हो / महोतक मैंने स्वयम्भूस्तोत्रादि दूसरे मान्य ग्रन्थोंकी छानबीन की है, मुझे उनमें कोई भी ऐसी बात उपलब्ध नहीं हुई जो रत्नकरण्डके उक्त छठे गचके विरुद्ध जाती हो अथवा किसी भी विषयमें उसका विरोध उपस्थित करती हो / प्रत्युत इसके, ऐमी कितनी ही बात देखनेम प्राती है जिनमे प्रहं केवलीमें बुधादिवेदनाओं अथवा दोषोंके प्रभावकी सूचना मिलती है। यहां उनमेसे दो चार नमूनेके नौरपर नीचे व्यक्त की जाती है: (क) 'म्वदीप-शान्या विहिनात्मशान्तिः' इत्यादि शान्ति-जिनके स्तोत्रमें यह बतलाया है कि शानि-जिनेन्द्रने प्रश्ने दोषोंकी शान्ति करके प्रान्मामें शान्ति स्थापित की है पौर इमीमे वे शरणागनों के लिये शान्तिके विधाता है / चकि क्षधादिक भी दोष है और वे प्रात्मामें प्रशानिके कारण होने हैं-कहा भी है कि "दुधासमा नास्ति शरीरवंटना। प्रत: प्रान्मामें जानिकी पूर्ण-प्रनिहाके निये उनको भी शान्त किया गया है, तभी शान्तिजिन शान्तिके विधाना बने है पोर नभी संसार सम्बन्धी क्लेशों तथा भयोंसे शान्ति प्राप्त करने के लिये उनसे प्रार्थना की गई है। और यह ठीक ही है जो स्वयं रागादिक दोषों प्रथवा पालिवेदनाघोम पीडित है--प्रशान्त है-वह दूसरों के लिये शान्तिका विधाता कम हो सकता है ? नही हो मकता। (ख) 'त्य शुद्धि-शमन्यातल्यम्य काष्ठां तुलाव्यतीता जिन-शान्तिरूपामयापिथ' इस यात्पनुशासनके वाक्यमे वीरजिनेन्द्रको शुद्धि, शक्ति मोर शाम्निकी परालको पहवाहपा बतलाया है जो पान्तिकी पराकाष्ठा (चरमसोमा) को पहुंचा हुमा हो उसमे धुपायि बेबनानोको सम्भावना नहीं बनती / (ग)'शर्म शाश्वतमवापस इस धर्म-जिनके सबनमें यह बतलाया है कि धर्मनाम बईत्परमेष्ठीने धावत सुबकी प्राति की है और इसीसे वे श. पर-मुखके करनेवाले सावतसुनको अवस्थामें एक मलके लिये भी क्षुपादि