________________ 450 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश दुःखोंका उद्भव सम्भव नहीं / इसीसे श्रीविद्यानन्दाचार्यने श्लोकवार्तिकमें लिखा है कि "क्षुधादिवेदनोद्भूतो नाहतोऽनन्तशर्मता" अर्थात् क्षुधादि वेदनाकी उद्भूति होनेपर महंन्तके अनन्तमुख नहीं बनता / (घ) 'त्वं शम्भवः सम्भवतपरागैः सन्तप्यमानस्य जनस्य लोके इत्यादि म्नवनमें शम्भवजिनको सामारिक तृपा-रोगोंमे प्रपीडित प्राणियोंके. लिये उन रोगोंकी शान्ति के प्रथं प्राकस्मिक वद्य बनलाया है। इसमे स्पप्ट है कि अहंज्जिन स्वयं-तृषा रोगों में पीडित नहीं होते, तमी वे दूसरोंक तृणारोगोंको दूर करने में समर्थ होते हैं / इसी तरह 'इदं जगजन्म-जरान्तकात निरऊजना शान्तिमजीगमस्त्वं' इम वाक्यके द्वारा उन्हें जन्म-जरा-मरगामे पीडिन जगतको निरजना शान्ति की प्राप्ति कराने वाला लिम्बा है, जिसमे स्पष्ट है कि वे स्वयं-जन्म-मरणमे पीडित न होकर निरजना शान्तिको प्राप्त थे। निरजना शान्ति में क्षुधादि वेदना प्रोक लिए अवकाश नहीं रहना / (ङ) 'अनन्तदापाशय-विग्रहो-ग्रही विषयान्मोहमयविदरं हृदि' इत्यादि अनन्तजित-जिनके स्नोत्रमे जिस मोहविनाचको पराजित करने का उल्लेख है उसके शरीरको अनन्त दापोका प्राधारभूत बताया है। इसमें स्पष्ट है कि दोषार: मम्या कुछ इनी गिनी ही नहीं है बल्कि बहन वडीची-मननदोष ना माहनीय कम के ही प्राधिन रहने है / अधिकांश दोपोम मारकी पुट ही काम किया करता है / जिन्होंने मोहकर्म का नाम कर दिया है उन्होने अनन्नताका नाम कर दिया है। उन दोयाममोहक महकार में होने वाली सुधादिकी वेदना भी शामिल है, हमीमे मोहनीयक प्रभाव हो जानेपर वंदनीय कमको धादि वंदनाांक उपन्त करनेम असमर्थ बनलाया है। इस तरह मूल प्राप्तमीमामा रथ. उसके वी कारिका महिला प्रय सन्दर्भ, प्राटमहमी आदि टीकाग्रो प्रोर ग्रन्यकारके दूमर प्रन्योक उपयंत विवेचनपरमे यह भने प्रकार स्पष्ट है कि रत्नकरणका उक्त शुधियामादि-पद्य स्वामी ममन्तभद्रक किमी भी ग्रन्थ ना उसके प्राशयकं साथ काई विगंध नही रम्बना अर्थात् उसमें दोपका क्षुत्पिपासादिके प्रभावरूप जो बाप समझाया गया है वह प्राप्तमीमांसाकं ही नहीं, किन्तु प्राप्तमीमामाकारकी दूमगे भी किमी कृति के विरुद्ध नहीं है बल्कि उन सबकं माप सङ्गन है / और इसलिये