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________________ स्वामी समन्तभद्र १६५ मौर इस तरहपर उन्होंने समंतभद्र के मुकाबले में अपनी कविताकी बहुत ही लघुता प्रकट की है समन्तभद्रादिकवीन्द्र भाम्यतां स्फुरन्ति यत्रामलमुनि रश्मयः । व्रजन्ति स्वद्योतवदेव हास्यतां, न तत्र किं ज्ञानन्तयोद्धता जनाः ||१४| (३) श्रकारजित्लासगिमें. प्रजितमेनाचार्यने समनभद्रवो नमस्कार करते हुए उन्हें कवि जर' 'मुनिबंध' श्रोर 'जनानन्द' ( लोगोंको आनंदित करनेवाले) लिखा है और साथ ही यह प्रकट किया है कि उन्हें अपनी 'वचनश्री के लिः ननकी गोभा बढाने अथवा उनमें शक्ति उत्पन करनेके लियेनमस्कार करना है. श्रीमत्समन्तादिकविकु जर मंत्रगम । मुनिवं जनानन्द नमामि वचनश्रियै ॥ ३ ॥ (२) परागनरित्र, परवादिता श्रीवर्धमानमृद्धि ममभद्रको praatees' और 'मुतात्रामृनमारसागर प्रकट करते हुए यह सूचित करते हैं कि समम कुवादियों (प्रतिवादियों) की विकार जयनाभ करके साथ ही यह भावना करते है कि वे महाकवीश्वर मुझ कविता प्रसन होइनकी विद्यामेरामें स्फुरायमान होकर मुगल मनोरथ करे समन्तभद्रादिमहाकवीश्वराः कुलादिविद्याजय लव्धकीर्तयः । सुतकशास्त्रामृत सार सागरा मयि प्रसादस्तु कवित्वकांक्षिण ||||| ( 2 ) भगवज्जनगतावाने प्रागामे, गगनको नमस्कार करते हुए, उन्हें 'गहना' कवियोको उप करनेवाला महान विधाता ( महाकविब्रह्मा) लिखा है और यह प्रकट किया है कि उनके वचनरूपी गनः कुमतपर्वत हो गये थे नमः समन्तभद्राय महते कविवे 1 यद्वचोय खपातेन निर्भिन्नाः कुमताद्रयः ॥ (६) ब्रह्म प्रजिनने सपने 'हनुमचरित्र' में, समन्तभद्रका जयघोष करते हुए, उन्हें 'भरूपरूपी कुमुदोंको प्रफुल्लित करनेवाला चन्द्रमा' लिखा है मोर साथ
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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