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________________ समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तोत्र 407 असली सुख-शान्तिकी प्राप्ति होती है और उसके प्राय: सभी गुण विकसित हो उठते है / यह सुख-शान्ति प्रात्मामें बाहरसे नहीं पाती और न गुरणोंका कोई प्रवेश ही बाहरसे होता है, प्रात्माकी यह सब निजी सम्पत्ति है जो कर्ममलके कारण प्राच्छादित और विलुप्तसी रहती है और उस कर्ममलके दूर होते ही स्वतः अपने असली रूपमें विकासको प्राप्त हो जाती है / प्रतः इस कर्म मलको दूर करना अथवा ज ना कर भस्म करदेना ही कर्मयोगका परमपूरपार्थ है / वह परमपुरुषार्थ योगवलका सातिशय प्रयोग है, जिसे निरुपमयोगबल' लिखा है और जिसके उस प्रयोगसे समूचे कर्ममलको भस्म करके उस प्रभव- सौख्पको प्राप्त करने की घोषणा की गई है जो ससारमें नहीं पाया जाता (115) / इस योगके दूसरे प्रसिद्ध नाम प्रशस्त ( सातिशय ) ध्यान (82), शुक्लध्यान (110) और समाधि (8,77) है / कर्म-दहन-गुण-सम्पन्न होनेसे इस योग ध्यान अथवा समाधिको, जो कि एक प्रकारका तप है, अग्नि (तेज) कहा गया है / इपी अग्निमे उक्त पुरुषार्थ-द्वारा कममलको जलाया जाता है; जैगा कि ग्रन्थके निम्न वाक्योंसे प्रकट है-- म्व दीप-मूलं स्व-समाधि-तेजसा निनाय यो निदयभस्मसाक्रियाम् (4) / कम-कक्षमदत्तपोऽग्निभिः (71) / ध्यानोन्मुखे ध्वंसि कृनान्तचक्रम् (76) / यस्य च शुक्लं परमतपाऽग्निध्योनमनन्तं दरितमधानीन् (110) / से कम छेदन की शक्तिमे भी मम्पन्न होने के कारण इन योगादिकको कही कही खड्ग तया चक्रकी भी उपमा दी गई है। यथा:"समाधि चक्रेण पुजिगाय महोदयो दुर्जय-मोह-चक्रम् (77) / " "स्व-योग-निस्त्रिश-निशात-धारया निशात्य यो दुर्जय-मोह-विहिपम् (133)" एक स्थान पर समाधिको कर्मरोग-निर्मूलनके लिये 'भैषज्य' (प्रमोव. औषधि ) की भी उपमा दी गई है 'विशोषणं मन्मय-दुर्मदाऽऽमयं समाधि-भैपज्य-गुणव्य॑लीनयत् (67)
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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