________________ 408 408 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश परमयोग-दहन-हुत-कल्मषन्धनः (121) / यह योगाग्नि क्या वस्तु है ? इसका उत्तर ग्रन्थके निम्न वाक्यपरसे ही यह फलित होता है कि 'योग वह सातिशय अग्नि है जो रत्नत्रयकी एकाग्रताके योगसे सम्पन्न होती है और जिसमें सबसे पहले कर्मोकी क्टुक प्रकृतियोंकी आहुति दी जाती है' - हुत्वा स्व-कर्म-कुटुक-प्रकृतीश्चतस्रो रत्नत्रयातिशय-तेजसि-जात-वीर्यः / (84) 'रत्नत्रय' सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको कहते है। जैसा कि स्वामी समन्तभद्रके 'रत्नकरण्ड' ग्रन्थसे प्रकट है। इस ग्रन्थ में भी उसके तीनों अंगोंका उल्लेख है और वह दृष्टि, संविद् एवं उपेक्षा-जैसे शब्दोके द्वारा किया गया है (60) , जिनका पागय सम्यग्दर्शनादिकसे ही है। इन तीनोंकी एकाग्रता जब प्रात्माकी ओर होती है-प्रात्माका हो दर्शन, प्रात्माका ही ज्ञान, प्रात्मामें ही रमण होने लगता है-और परमें आसक्ति छूटकर उपेक्षाभाव प्राजाता है तब यह अग्नि सातिशयरूप में प्रज्वलित हो उठती है और कर्मप्रकृतियोंको सविशेष रूपसे भस्म करने लगती है / यह भस्म-क्रिया इन त्रिरत्नकिरणों की एकाग्रतामे उसी प्रकार सम्पन्न होती है जिस प्रकार कि सूर्य रश्मि. योंको शीशे या काँच-विशेषमें एकाग्र कर शरीरके किसी अंग अथवा वस्त्रादिक पर डाला जाता है तो उनसे वह अङ्गादिक जलने लगता है / सचमुच एकाग्रतामें बड़ी शक्ति है / इधर उधर बिखरी हुई तथा भिन्नाग्रमुख-शक्तियां वह काम नहीं देती जो कि एकत्र और एकाग्र ( एकमुख) होकर देती हैं। चिन्ताके एकाग्रनिरोधका नाम ही ध्यान तथा समाधि है / प्रात्म-विषयमें यह चिन्ता जितनी एकाग्र होती जाती है सिद्धि अथवा स्वात्मोपलब्धि भी उतनी ही समीप अाती जाती है। जिस समय इस एकाग्रतासे सम्पन्न एवं प्रज्वलित 'दृष्टि संविदुपेक्षाऽस्त्रस्त्वया धीर पराजित:' इस वाक्यके द्वारा इन्हें 'अत्र' भी लिखा है, जो प्राग्नेय अस्त्र हो सकते हैं अथवा कर्मछेदनकी शकिसे सम्पन्न होने के कारण खड्गादि-जैसे प्रायुध भी हो सकते हैं।