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________________ समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तोत्र 406 योगानलमें कर्मोकी चारों मूल कटुक प्रकृतियां अपनी उत्तर और उत्तरोत्तर शाखा-प्रकृतियोंके साथ भस्म हो जाती है अथवा यों कहिए कि सारा घातिकर्ममल जलकर आत्मासे अलग हो जाता है उस समय प्रात्मा जातवीर्य (परमशक्ति-सम्पन्न) होता है-उसकी अनन्तदर्शन, मनन्तज्ञान, अनन्तमुख और अनन्तवीर्य नामकी चारों शक्ति माँ पूर्णत: विकसित हो जाती हैं और सबको देखने-जानने के साथ साथ पूर्ण-सुख-शान्तिका अनुभव होने लगता है। ये शक्तियाँ ही आत्माकी श्री हैं, लक्ष्मी है, शोभा है और यह विकास उसी प्रकारका होता है जिस प्रकारका कि सुवर्ण-पाषाणसे सुवर्णका होता है / पापारास्थित सुवर्ण जिस तरह अग्नि-प्रयोगादिके योग्य साधनोंको पाकर किट्टकालिमादि पापाणमलसे अलग होता हुअा अपने शुद्ध सुवर्णरूपमें परिणत हो जाता है उसी तरह यह संसारी जीव उक्त कर्ममलके भस्म होकर पृथक् होजानेपर अपने शुद्धात्मस्वरूपमें परिणत हो जाता है / घातिकर्ममलके प्रभावके साथ प्रादुर्भूत होनेवाले इस विकासका नाम ही 'पार्हन्त्यपद' है, जो बड़ा ही अचिन्त्य है, अद्भत है और त्रिलोककी पूजाके अतिशय (परमप्रकर्ष)का स्थान है (133) / इमीको जिनपद, कैवल्यपद तथा ब्रह्मपदादि नामोंसे उल्लेखित किया जाता है। ब्रह्मपद प्रात्माकी परमविशुद्ध अवस्था के सिवा दूसरी कोई चीज़ नहीं है। स्वामी समन्तभद्रने प्रस्तुत ग्रन्यमें 'अहिसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमं (116) इस वाक्यके द्वारा हिमाको 'परमब्रह्म' बतलाया है और यह ठीक ही है; क्योंकि अहिंसा प्रात्मामें राग-द्वेष-काम-क्रोधादि दोषोंकी निवृत्ति अथवा अप्रादुर्भूतिको कहते है * / जब प्रात्मामें रागादि-दोषोंका समूलनाश + मिद्धि: स्वात्मोपलब्धि: प्रगुण-गुणगणोच्छादि-दोषापहारात् / योग्योपादान-युक्त्या दृषद् इह यथा हेमभावोपलब्धिः // 1 // -पूज्यपाद-सिद्ध भक्ति * अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिसेति / तेषामेवोत्पत्तिहिन्सेति जिनागमस्य संक्षेपः // 44 // -- पुरुषार्थसिद्धय पाये, अमृतचन्द्रः /
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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