SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 414
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 410 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश होकर उसकी विभाव-परिणति मिट जाती है और अपने शुद्धस्वरूपमें चर्या होने लगती है तभी उसमें अहिंसाकी पूर्णप्रतिष्ठा कही जाती है, और इसलिए शुद्धात्म-चर्यारूप अहिंसा ही परमब्रह्म है-किसी व्यक्ति-विशेषका नाम ब्रह्म या परमब्रह्म नहीं है / इसीसे जो ब्रह्मनिष्ठ होता है वह प्रात्मलक्ष्मीकी सम्प्राप्तिके साथ साथ 'सम-मित्र-शत्रु' होता तया 'कषाय-दोषोंसे रहित' होता है; जैसा कि ग्रन्यके निम्न वाक्यसे प्रकट है: सब्रह्मनिष्ठः सम-मित्र-शत्रु-विद्या-विनिर्वान्त-क.पायदोपः। लब्धात्मलक्ष्मीरनितोऽजितात्मा जिनश्रियं मे भगवान्वित्ताम् / / यहां ब्रह्मनिष्ठ अजित भगवानसे 'जिनश्री' की जो प्रार्थना की गई है उसो स्पष्ट है कि ब्रह्म' और 'जिन' एक ही है, और इसलिये जो 'जिनधी' है वही 'ब्रह्मश्री' है-दोनोंमें तात्त्विक दृष्टि से कोई अन्तर नहीं है / यदि अन्तर होता तो ब्रह्मनिष्टमे ब्रह्मश्रीको प्रार्थना की जाती, न कि जिनश्रीकी / अन्यत्र भी, वृषभतीर्थङ्करके स्तवन (4) में, जहां 'ब्रह्मपद' का उल्लेख है वहाँ उसे 'जिनमद' के अभिप्रायमे सर्वया भिन्न न समझना चाहिये / वहाँ अगले ही पद्य (5) में उन्हें स्पष्टतया 'जिन' रूपसे उल्लेखित भी किया है। दोनों पदो में थोड़ा-सा हष्टिभेद है-'जिन' पद कर्मके निपेधकी दृष्टिको लिए हुए है और 'ब्रह्म' पद स्वरूपमें अवस्थिति अथवा प्रवृत्तिको दृष्टिको प्रधान किये हुए है / कर्मके निषेध-विना स्वरूपमें प्रवृत्ति नहीं बनती और स्वरूपमें प्रवृत्ति के विना कर्मका निषेध कोई अर्थ नहीं रखता। विधि और निपंध दोनोंमें परम्पर अविनाभाव सम्बन्ध है-एकके विना दुसरे का अस्तित्त्व ही नही बनता, यह बात प्रस्तुत ग्रन्थमें खूब स्पष्ट करके समगाई गई है / अत: संज्ञा प्रथवा शब्दभेदके कारण सर्वथा भेदकी कल्पना करना न्याय-संगत नही है। अस्तु / जब घाति-कर्ममल जलकर अथवा शक्तिहीन होकर प्रात्मासे बिल्कुल अलग हो जाता है तब शेष रहे चारों अघातियाकर्म, जो पहले ही प्रात्माके स्वरूपको घातने में समर्थ नहीं थे, पृष्ठबलके न रहनेपर गौर भी अधिक प्रधातिया हो जाते एवं निर्बल पड़ जाते हैं और विकसित आत्माके मुखोपभोग एवं ज्ञानादिककी प्रवृत्तिमें जरा भी अडचन नहीं डालते। उनके द्वारा निमित, स्थित पीर संचालित शरीर भी अपने बाह्यकरण-स्पर्शनादिक इन्द्रियों और
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy