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________________ समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तोत्र 411 अन्तःकरण-मनके साथ उसमें कोई बाधा उपस्थित नहीं करता और न अपने उभयकरणोंके द्वारा कोई उपकार ही सम्पन्न करता है। उन अघातिया प्रकृतियोंका नाश उसी पर्याय में अवश्यंभावी होता है-पायुकर्मको स्थिति पूरी होते होते अथवा पूरी होने के साथ साथ ही वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मोकी प्रकृतियां भी नष्ट हो जाती हैं अथवा योग-निरोधादिके द्वारा सहज ही नष्ट कर दी जाती है / और इसलिये जो घातिया कर्मप्रकृत्तियोंका नाश कर मात्मलक्ष्मीको प्राप्त होता है उसका आत्मविकास प्रायः पूरा ही हो जाता है, वह शरीर-सम्बन्धको छोड़कर अन्य सब प्रकारसे मुक्त होता है और इसीसे उसे जोवन्मुक्त' या 'सदेहमुक्त' कहते हैं- सकलपरमात्मा' भी उसका नाम इसी शारीरिक दृष्टिको लेकर है-उसके लिये उसी भवसे मोक्ष प्राप्त करना, विदेहमुक्त होना और निष्कल परमात्मा बनना असन्दिग्ध तथा अनिवार्य हो जाता है-उसकी इस सिद्ध पद-प्राप्तिको फिर कोई रोक नहीं सकता। ऐमी स्थितिमें यह स्पष्ट है कि घाति-कर्ममलको प्रात्मामे सदाके लिये पृथक कर देना ही मबसे बड़ा पुरुषार्थ है और इसलिये कर्मयोग में सबसे अधिक महत्व इमीको प्राप्त है / इसके बाद जिस अन्तिम समाधि अथवा शुक्लध्यानके द्वारा प्रवशिष्ट मघातिया कर्मप्रकृतियों मूलत: विनाश किया जाता है और सकलकर्ममें विमुक्तिरूप मोक्षपदको प्राप्त किया जाता है उसके माथ ही कर्मयोगकी समाप्ति हो जाती है और इसलिये उक्त प्रन्तिम समाधि हो कर्मयोगका अन्त है, जिसका प्रारम्भ 'मुमुक्ष' बनने के साथ होता है। कर्मयोगका मध्य__अब कर्मयोगके 'मध्य' पर विचार करना है जिसके प्राश्रय-विना कर्मयोगकी अन्तिम तथा अन्तसे पूर्वको अवस्थाको कोई अवसर ही नहीं मिल सकता पोर न प्रात्माका उक्त विकास ही सध सकता है। मोक्ष-प्रासिकी सदिच्छाको लेकर जब कोई सच्चा मुमुक्षु बनता है तब उसमें * जैसाकि ग्रन्थगत स्वामी समन्तभद्रके निम्न वाकासे प्रकट हैबहिरन्तरप्युभयथा च करणमविघाति नाऽर्थकृत् / नाथ ! युगपदखिलं च सवा त्वमिदं तलामलफवद्विवेदिय / / 126 / /
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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