________________ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश स्याद्वादिनो नाथ ! तवैव युक्तं नैकान्त दृष्टेस्वमतोऽसि शास्ता // 14 // और यह बात बिल्कुल ठीक है। इसको विशेषरूपमें सुमति-जिन प्रादिके स्तवनोंमें पाये जानेवाले तत्त्वज्ञानसे, जिसे ऊपर ज्ञानयोगमें उद्धृत किया गया है, और स्वामी समन्तभद्र के देवागम तथा युक्त्यनुशासन-जमे अन्योंके अध्ययनमे और दूसरे भी जैनागमोंके स्वाध्यायसे भले प्रकारअनुभूत किया जा सकता है / अस्तु / प्रस्तुत ग्रन्थमें बन्धन को 'अचेतनकृत' (17) बतलाया है और उस प्रचेतनको जिससे चेतन (जीव) बँधा है 'कर्म' (71,84 ) कहा है, 'कृतान्न' (76) नाम भी दिया है और दुरित ( 185, 110), दुरिताञ्जन (57) दुरितमल (115), कल्मप (121), तथा 'दोषमूल' (4) जैसे नामोंसे भी उल्लेखित किया है / वह कर्म अथवा दुरितमल पाठ प्रकारका (115) हैआठ उसकी मूल प्रकतियाँ हैं, जिनके नाम है-१ ज्ञानावरण, : दर्शनावरण, 3 मोहनीय (मोह), 4 अन्तराय, 5 वेदनीय, 6 नाम, गोत्र, 8 प्रायु / इनमसे प्रथम चार प्रकृतियाँ कटुक (84) है-बड़ी ही कड़वी है, प्रात्माके स्वरूपकी घात करनेवाली है और इसलिये उन्हें 'घातिया' कहा जाता है, शेष चार प्रकृतियां 'अघातिया' कहलाती है / इन पाठों जड कर्ममलोंके अनादि-सम्बन्धमे यह जीवात्मा मलिन, अपवित्र, कलंकित, विकृत और स्वभावमे च्युत होकर विभावपरिणतिरूप परिणम रहा है; अज्ञान, अहंकार, राग, द्वे प, मोह, काम, क्रोध, मान, माया, लोभादिक असख्य-अनन्त दोपोंका कीड़ास्थल बना हुआ है, जो तरह तरह के नाच नचा रहे हैं; और इन दोपोंके नित्यके ताण्डव एवं उपद्रवसे सदा प्रशान्त, उद्विग्न अथवा बेचंन बना रहता है और उसे कभी सच्ची मुख-शान्ति नहीं मिल पाती। इन दोषोंकी उत्पत्तिका प्रधान कारण उक्त कर्ममल है, और इसीसे उसे 'दोषमूल' कहा मया है / वह पुद्गलद्रव्य होनेसे 'द्रव्यकर्म' भी कहा जाता है और उसके निमित्तसे होनेवाले दोनों को 'भावकर्म' कहते है। इन द्रव्य-भाव-रूप उभय प्रकारके कर्मोका सम्बन्ध जब मात्मासे नहीं रहता-उसका पूर्णतः विच्छेद हो जाता है-तभी प्रात्माको