SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 409
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तोत्र 485 कोई उपकार ही बनता है (13, 18, 20, 31, 82) / मनुष्य प्राय: विषयसुखकी तृष्णाके वश हुए दिन भर श्रमसे पीड़ित रहते हैं और रातको सो जाते है-उन्हें प्रात्महितकी कोई सुधि ही नहीं रहती (48) / उनका मन विषयसुखकी अभिलाषारूप अग्निके दाहसे मूलित-जैसा हो जाता है (47) / इस तरह इन्द्रिय-विषयको हेय बतलाकर उनमें प्रासक्तिका निषेध किया है, जिससे स्पष्ट है कि वे उम कर्मयोगके विषय ही नहीं जिसका चरम लक्ष्य है प्रात्माका पूर्णतः विकास / पूर्णतः प्रात्मविकासके अभिव्यञ्जक जो नाम ऊपर दिये हैं उनमें मुक्ति और मोक्ष ये दो नाम प्रधिक लोकप्रसिद्ध हैं और दोनों बन्धनसे छूटनेके एक ही पागयको लिये हुए है / मुक्ति अथवा मोक्षका जो इच्छुक है उसे 'मुमुक्षु' कहते है / मुमुक्षु होनेसे कर्मयोमका प्रारम्भ होता है-यही कर्मयोगकी प्रादि अथवा पहली सीढ़ी है / मुमुक्षु बननेसे पहले उस मोक्षका जिसे प्राप्त करनेकी इच्छा हृदयमे जागृत हुई है, उस बन्धनका जिससे छूटनेका नाम मोक्ष है, उस वस्तु या वस्तु-ममूहका जिससे बन्धन बना है, बन्धनके कारणोंका, बन्धन जिसके साथ लगा है उस जीवात्माका, बन्धनसे छूटनेके उपायोंका और बन्धनसे छूटनेमें जो लाभ है उसका अर्थात् मोक्षफनका सामान्य ज्ञान होना अनिवार्य है-उस ज्ञानके बिना कोई मुमुक्षु बन ही नहीं सकता। यह ज्ञान जितना यथार्थ विस्तृत एवं निर्मल होगा अथवा होता जायगा और उसके अनुसार वन्धनसे छूटनेके समीचीन उपायोंको जितना अधिक तत्परता और सावधानीके साथ काममें लाया जायगा उतना ही अधिक कर्मयोग सफल होगा, इसमें विवादके लिये कोई स्थान नहीं है / बन्ध, मोक्ष तथा दोनोंके कारण, बद्ध, मुक्त और मुक्तिका फल इन सब बातोंका कथन यद्यपि अनेक मतोंमें पाया जाता है परन्तु इनकी समुचित व्यवथा स्याद्वादी प्रहन्तोंके मतमें ही ठीक बैठती है, जो अनेकान्तदृष्टिको लिये होता है / सर्वथा एकान्तदृष्टिको लिये हुए नित्यत्व,मनित्यत्व, एकत्व,प्रनेकत्वादि एकान्तपक्षोंके प्रतिपादक जो भी मत है, उनमेंसे किसी में भी इनको समुचित व्यवस्था नहीं बनती। इसी बातको ग्रन्थको निम्न कारिकामें व्यक्त किया गया है - बन्धश्च मोक्षश्च वयोश्च हेतू बद्धश्च मुक्तश्च फलं च मुक्तः।
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy